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________________ सूत्र २९ - २६ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २७५ कौनसी भी एक गन्ध, पाँच प्रकारके वर्णमेंसे कोई भी एक वर्ण, और शेष चार प्रकारके स्पर्शोमेंसे दो प्रकारके स्पर्श-शीत उष्णमेंसे एक और स्निग्ध रूक्ष मेंसे एक, ये गुण उस परमाणुर्मे रहा कैरते हैं । हमारी दृष्टि के विषय होनेगले जितने भी स्थूल कार्य हैं, उनको देखकर उसका बोध होता है, क्योंकि यदि परमाणु न होते, तो इन कार्योंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती थी । अतएव कार्यको देखकर कारणका अनुमान होता है । परमाणु अनुमेय है, और उसके कार्य लिङ्ग-साधन है । इसी लिये परमाणुको कार्य - लिंग कहा है । पुद्गल के इन दो भेदोंमेंसे जो अणु हैं, वे अबद्ध हुआ करते हैं, वे परस्परमें असंश्लिष्ट रहा करते हैं । जब उन परमाणुओंका संश्लेश होकर संघात बन जाता है, तब उसको स्कन्ध कहा करते हैं । स्कन्ध भी दो प्रकारके हैं— बादर और सूक्ष्म । बादर स्कन्धों में आठों प्रकारका ही स्पर्श रहा करता है, परन्तु सूक्ष्म स्कन्धों में उक्त चार प्रकारका ही स्पर्श रहता है । भाष्यम् -- अत्राह -- कथं पुनरेतद् द्वैविध्यं भवतीति ? अत्रोच्यते - स्कन्धास्तावत् अर्थ -- प्रश्न - जब सभी पुद्गल द्रव्यपनेकी अपेक्षा समान हैं, तब उनमें ये दो भेदपरमाणु और स्कन्ध होते किस कारण से हैं ? उत्तर — इसका कारण यह है, कि इनमें से जो स्कन्धरूप पुद्गल हैं वे — सूत्र -- संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ भाष्यम् - सङ्घाताद् भेदात् सङ्घातभेदादित्येतेभ्यस्त्रभ्यः कारणेभ्यः स्कन्धा उत्पद्यन्ते द्विप्रदेशादयः । तद्यथा-द्वयोः परमाण्वोः सङ्घातात् द्विप्रदेशः, द्विप्रदेशस्याणोश्च सङ्घातात् त्रिप्रदेशः, एवं संख्येयानामसंख्येयानां च प्रदेशानां सङ्घातात् तावत्प्रदेशाः । एषामेव भेदात् द्विप्रेशपर्यन्ताः । एत एव च संघात भेदाभ्यामेकसांमायकाभ्यां द्विप्रदेशादयः स्कन्धा उत्पद्यन्ते । अन्यसंघातेनान्यतो भेदेनेति ॥ अर्थ – स्कन्धोंकी उत्पत्तिमें तीन कारण हैं- सङ्घात भेद और संघातभेद । इन तीन कारणोंसे द्विप्रदेशादिक स्कन्धों की उत्पत्ति होती है । यथा - दो परमाणुओंके सङ्घातसे द्विप्रदेश स्कन्ध उत्पन्न होता है, द्विप्रदेश स्कन्ध और अणुके सङ्घातसे त्रिप्रदेशस्कन्ध उत्पन्न होता है । इसी प्रकार संख्यात या असंख्यात प्रदेशोंके संघात से उतने ही प्रदेशवाले स्कन्ध उत्पन्न हुआ करते हैं । इसी प्रकार भेदके विषय में समझना चाहिये । बड़े स्कन्धका भेद होकर छोटा स्कन्ध उत्पन्न होता है, और इस तरहसे भेदके द्वारा सबसे छोटे द्विप्रदेश स्कन्ध पर्यन्त उत्पन्न हुआ करते हैं । कभी कभी एक ही समय में संघात १ – स्पर्श गुणके ८ भेद बताये हैं । उनमें से ४ सत्पर्यायरूप हैं और ४ आपेक्षिक हैं। जो सत्पर्यायरूप हैं, उनमें से- शीत उष्ण स्निग्ध रूक्षमेंसे अविरुद्ध दो धर्म युगपत् परमाणुमें रहते हैं, और जो आपेक्षिक धर्म है उनकी कोई विवक्षा नहीं है । हलका भारी नरम कठोर ये चार धर्म अपेक्षाकृत हैं, परमाणुमें ये नहीं रहते । ३—एकशब्दः समानार्थे । तद्यथा - " तेनैकदिक् ” ( पा. अ. ४ पा. ३ सूत्र ११२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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