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________________ २७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [पञ्चमोऽध्यायः सूत्र-स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ ___ भाष्यम्-स्पर्शः रसः गन्धः वर्ण इत्येवंलक्षणाः पुद्गला भवन्ति । तत्र स्पर्शोऽष्टविधःकठिनो मृदुर्गुरुर्लघुः शीत उष्णः स्निग्धोरूक्ष इति । रसः पञ्चविधः-तिक्तः कटुः कषायोऽम्लो मधुर इति । गन्धो द्विविधा--सुरभिरसुरभिश्च । वर्णः पञ्चविधः--कृष्णो नीलो लोहितः पतिः शुक्ल इति ॥ अर्थ-सभी पुद्गल स्पर्श रस गन्ध वर्णवान् हुआ करते हैं। कोई भी पुद्गल ऐसा नहीं है, कि जिसमें इन चारोंमेंसे एक भी गुण न पाया जाता हो । अतएव यह पुद्गल द्रव्यका लक्षण समझना चाहिये । जिसमें यह लक्षण नहीं पाया जाता, उसको पुद्गल भी नहीं कह सकते । जीवमें यह लक्षण नहीं रहता, अतएव जीव और पुद्गल दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं। इन चार गुणोंके उत्तरभेद अनेक हैं, फिर भी उन सबका जिनमें अन्तर्भाव हो सकता है, ऐसे मूलभेद इस प्रकार हैं:-स्पर्श आठ प्रकारका है, कठिन मृदु ( कोमल ) गुरु ( भारी ) लघु ( हलका ) शीत उष्ण स्निग्ध ( चिकना ) रूक्ष (रूखा) । रस पाँच प्रकारका है-तिक्त ( चरपरा ) कटु ( कडुआ) कषाय ( कसेला ) अम्ल (खट्टा) और मधुर (मीठा)। गंध दो प्रकारकी है-सुरभि (सुगंध) और ( असुरभि ) दुर्गध । वर्ण पाँच प्रकारका है- कृष्ण नील रक्त पीत और शुक्ल । इस प्रकार चार गुणोंके २० भेद अथवा पर्याय हैं। हरएक समयमें इनमें से चारों गुणोंके यथासम्भव भेद प्रत्येक पुद्गल द्रव्यमें पाये जाते हैं । कठिनादिक भेदोंका अर्थ प्रसिद्ध है, अतएव उसके यहाँ बतानेकी आवश्यकता नहीं है । भाष्यम्-किश्चान्यत् अर्थ-पुद्गल द्रव्यके गुण ऊपर जो बताये हैं, उनके सिवाय उसके और भी धर्म प्रसिद्ध हैं । उन्हींकी अपेक्षासे सूत्र करते हैं: सूत्र-शब्दबंधसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ॥ भाष्यम्-तत्र शब्दः षड्विधः-ततो विततो घनः शुषिरः संघर्षो भाषा इति । बन्धस्त्रिविधः-प्रयोगबन्धो विस्रसाबन्धो मिश्रबन्ध इति । स्निग्धरूक्षत्वाद् भवतीति वक्ष्यते । सौम्यं द्विविध-अन्त्यमापेक्षिकं च। अन्त्यं परमाणुष्वेव, आपेक्षिकं च व्यणुकादिषु सङ्घातपरिणामापेक्षम् भवति । तद्यथा-आमलकाद् बदरमिति । स्थौल्यमपि द्विविधम्-अन्त्यमापेक्षिकं च । संघातपरिणामापेक्षमेव भवति । तत्रान्त्यम् सर्वलोकव्यापिनि महास्कन्धे भवति, आपेक्षिकं बदरादिभ्य आमलकादिष्विति। संस्थानमनेकविधम्-दीर्घहस्वाद्यनित्थं नत्वपर्यन्तम् । भेदः पञ्चविधः-औत्कारिकः चौर्णिकः खण्डः प्रतरः अनुतट इति । तमश्छायातपोद्योताश्च परिणामजाः। सर्व एवैते स्पर्शादयः पुद्गलेष्वेव भवन्तीत्यतः पुद्गलास्तद्वन्तः । १-अनुचट इति वा पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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