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________________ सत्र २३-२४ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ-शब्द बन्ध सौक्ष्म्य स्थौल्य संस्थान भेद तम छाया आतप और उद्योत ये दश भी पुद्गल द्रव्यके ही धर्म हैं । शब्दादिकका स्वरूप क्रमसे इस प्रकार है-जिसके द्वारा अर्थका प्रतिपादन हो, अथवा जो ध्वनिरूप परिणत हो, उसको शब्द कहते हैं। सामान्यतया यह छह प्रकारका होता है-तत वितत घन शपिर संघर्ष और माषा । मृदङ्ग भेरी आदि चर्मके वाद्यों द्वारा उत्पन्न हुए शब्दको तत कहते हैं । सितार सारङ्गी आदि तारके निमित्तसे बजनेवाले वाद्योंके शब्दको वितत कहते हैं । मनीरा झालर घंटा आदि कांसेके शब्दको धन कहते हैं। बीन शंख आदि फूंक अथवा वायुके निमितसे वजनेवाले वाद्योंके शब्दको शुषिर कहते हैं । काष्ठादिके परस्पर सङ्घातसे होनेवाले शब्दको सङ्घर्ष कहते हैं। वर्ण पद वाक्य रूपसे व्यक्त अक्षररूप मुखद्वारा बोले हुए शब्दको भाषा कहते हैं। अनेक पदार्थोंका एक क्षेत्रावगाहरूपमें परस्पर सम्बन्ध हो जानेको बन्ध कहते हैं । यह तीन प्रकारका है—प्रयोगबन्ध विस्रसाबन्ध और मिश्रबन्ध । जीवके व्यापारसे होनेवाले बन्धको प्रायोगिक कहते हैं, जैसे कि औदारिक शरीरवाली बनस्पतियोंके काष्ठ और लाखका हो जाया करता है । जो प्रयोगकी अपेक्षा न करके स्वभावसे ही हो, उसको विस्त्रसाबन्ध कहते हैं । यह दो प्रकारका हुआ करता है-सादि और अनादि । बिजली मेघ इन्द्रधनुषआदिके रूपमें परिणत होनेवालोंको सादि विस्त्रसाबन्ध कहते हैं। धर्म अधर्म आकाशका जो बन्ध है, उसको अनादि विस्रसाबन्ध कहते हैं । जीवके प्रयोगका साहचर्य रखकर अचेतन द्रव्यका जो परिणमन होता है, उसको मिश्रबन्ध कहते हैं, जैसे कि स्तम्भ कुम्भ आदि । सूक्ष्मताका अर्थ पतलापन या लघुता आदि है। यह दो प्रकारका होता है, अन्त्य और आपेक्षिक । परमाणुओंमें अन्त्य सूक्ष्मता पाई जाती है और व्यणुकादिकमें आपक्षिक सूक्ष्मता रहती है । आपेक्षिक सूक्ष्मता संघातरूप स्कन्धोंके परिणमनकी अपेक्षासे हुआ करती है, जैसे कि आमलेकी अपेक्षा बदरीफलमें सूक्ष्मता पाई जाती है । अतएव यह सूक्ष्मता अनेक भेदरूप है। स्थूलताका अर्थ मोटापन अथवा गुरुता है । इसके भी दो भेद हैं-अन्त्य और आपेक्षिक । आपेक्षिक स्थूलता सङ्घातरूप पुद्गल स्कन्धोंके परिणमन विशेषकी अपेक्षासे ही हुआ करती है । अन्त्य स्थलता सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त होकर रहनेवाले महास्कन्धमें रहा करती है, और आपेक्षिक स्थलता अपेक्षाकृत होती है, जैसे कि बदरीफलकी अपेक्षा आमलेमें स्थूलता पाई जाती है । अतएव सूक्ष्मताके समान इसके भी बहुत भेद हैं। 1-किन्हीं भी दो द्रव्योंका सम्बन्धमात्र बन्ध शब्दका अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं हैं । यहाँ पुगलके उपकारका प्रकरण है, अतएव इसमें यह बन्ध नहीं ग्रहण करना चाहिये । जैसा कि टीकाकारने भी लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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