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सूत्र २२ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२६९ सकता । अतएव पाककी वृत्ति-वर्तना प्रथम क्षणसे ही होती है। इसी लिये वर्तनाको प्रथम समयाश्रया कहा है । इसी प्रकार प्रतिक्षणकी वर्तनाके विषयमें समझना चाहिये । क्षणवर्ती पर्याय या परिवर्तन इतना सूक्ष्म है, कि वह दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, और इसी लिये उसके आकार आदिका कोई वर्णन भी नहीं कर सकता, जैसा कि पहले कहा भी जा चुका है, किन्तु स्थूल परिवर्तनको देखकर उसका अनुमान होता है। वह अनुमानगम्य परिवर्तन अपनी सत्ताका अनुभव करनेमें एक ही क्षण लगाता है । अतएव वर्तनाको अन्तर्नी तैकसमया कहा है।
___ कोई कोई कहते हैं, कि वस्तुक्रिया अथवा पदार्थोंका वर्तन सूर्यकी गतिके आधीन है। उसीसे काल नामका सम्पूर्ण व्यवहार सिद्ध होता है । कालनामका कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सूर्यकी गतिक्रियामें भी कालकी ही अपेक्षा है । अन्यथा उसका भी प्रतिसमय परिवर्तन क्रमसे नहीं हो सकता । इसके सिवाय जहाँपर सूर्यकी गति क्रिया नहीं पाई जाती, ऐसे स्वर्गादिकोंमें कालकृत व्यवहार किसतरह सिद्ध होगा ? अतएव काल भी एक द्रव्य मानना ही चाहिये ।
परिणामका स्वरूप आगे चलकर “ तद्भावः परिणामः” इस सूत्रके प्रसङ्गमें कहेंगे । उसके सादि और अनादि भेदोंमें तथा तीनों प्रकारकी गतिमें और कालकृत परत्वापरत्वमें जो कालकी अपेक्षा पड़ती है, वह स्पष्ट ही है। अतएव उसके विषयमें विशेष आगम-ग्रथोंसे जानना चाहिये।
भाष्यम्-अवाह-उक्तं भवता शरीरादीनि पुद्गलानामुपकार इति । पुदगला इति च तन्त्रान्तरीया जीवन परिभाषन्ते । स्पर्शादिरहिताश्चान्ये । तत्कथमेतदिति ? अत्रोच्यतेएतदादिविप्रतिपत्तिप्रतिषेधार्थ विशेषवचनविवक्षयाचेदमुच्यते
अर्थ-प्रश्न—आपने शरीरादिक पुद्गल द्रव्यके उपकार हैं, ऐसा कहा है; परन्तु कितने ही मत-वाले पुद्गल शब्दसे जीवको कहते हैं। उनके मतमें जीव और पुद्गल दो स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं । या यों कहिये कि जिस प्रकारका जीव द्रव्य उपयोग लक्षणवाला पुद्गलसे भिन्न आपने माना है, वैसा वे नहीं मानते। इसके सिवाय किसी किसीके मतमें जीव और पुद्गल दो माने तो हैं, परन्तु उन्होंने पुद्गलोंको स्पर्शादि गुणोंसे रहित भी माना है। अतएव कहिये कि यह • किस प्रकारसे है ? पुद्गलका स्वरूप कैसा माना जाय ? उत्तर-तुमने जिस विप्रतिपत्तिका उल्लेख किया है, उसका और उसी तरहकी और भी जो विप्रतिपत्ति इस विषयमें हैं, उन सबका निषेध करने के लिये और पुद्गल द्रव्यका विशेषतया स्वरूप बतानेकी इच्छासे ही आगेका सूत्र किया जाता हैः
-सर्वशून्यवादी नास्तिक अथवा वार्हस्पत्यसिद्धान्तवाले । २-वैशेषिकोंने पृथ्वी आदिको क्रमसे चार गुण तीन गुण दो गुण और एक गुणवाला माना है ।
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