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________________ २१८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ पञ्चमोऽध्यायः जो वर्तन होता है, उसको वर्तना कहते हैं । परिणाम दो प्रकारका है-अनादि और आदिमान् । इसका वर्णन आगे चल कर किया जायगा । क्रिया शब्दसे यहाँपर गति ली गई है । वह तीन प्रकार की है-प्रयोगगति, विस्रसागति, और मिश्रगति । परत्वापरत्व तीन प्रकारका है-प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत, और कालकृत । धर्म महान् है, ज्ञान महान् है, अधर्म निकृष्ट है, अज्ञान निकृष्ट है, इसी प्रकारसे किसी भी वस्तुकी प्रशंसा या निन्दा करनेको प्रशंसाकृत परत्वापरत्व समझना चाहिये । एक समयमें एक ही दिशामें ठहरे हुए दो पदार्थों से जो दूरवर्ती है, उसको पर कहा जाता है, और जो निकटवर्ती है, उसको अपर कहा जाता है। इसका नाम क्षेत्रकृत परत्वापरत्व है। सोलह वर्षकी उमरवालेसे सौ वर्षकी उमर वाला पर-बड़ा कहा जाता है, और सौ वर्षकी उमरवालेसे सोलह वर्षकी उमरवाला अपर-छोटा समझा जाता है। इसीको कालकृत परत्वापरत्व कहते हैं । इनमेंसे प्रशंसाकृत और क्षेत्रकृत परत्वापरत्वको छोड़कर बाकीका कालकृत परत्वापरत्व और वर्तना परिणाम तथा क्रिया यह सब कालद्रव्यका उपकार है। भावार्थ--सभी पदार्थ अपने अपने स्वभावके अनुसार वर्त रहे हैं, और सदा वर्तते हैं । किंतु इसको वर्तानेवाला काल द्रव्य है। कालकी यह प्रयोजक शक्ति ही वर्तना शब्दके द्वारा यहाँ बताई है । किन्तु धर्मादिक द्रव्य जिस तरह उदासीन कारण माने हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य भी उदासीन प्रयोजक है । किन्तु पदार्थोंके वर्तनमें वह बाह्य निमित्त कारण है अवश्य । यदि काल कारण न माना जायगा, तो बड़ी गड़बड़ उपस्थित होगी। क्योंकि हर एक पदार्थके क्रममावी परिणमन युगपत् उपस्थित होंगे। अन्तरङ्ग और कालके सिवाय बाकी सब बाह्य कारणोंके मिल जानेपर फिर कौन ऐसी शक्ति है, कि जो भविष्य परिणमनोंको नहीं होने देती । अतएव काल भी एक कारणभृत द्रव्य मानना पड़ता है। वर्तना आदिक कालके उपकार हैं-असाधारण लक्षण हैं । क्योंकि यदि काल न हो, तो द्रन्योंका वर्तन ही नहीं हो सकता, और न उनका परिणमन हो सकता, न गति हो सकती और न परत्वापरत्वका व्यवहार ही बन सकता है। भात बनानेके लिये चावलोंको बटलाईमें डाल दिया, बटलाईमें पानी भरा हुआ है, नीचे अग्नि जल रही है, इत्यादि सभी कारणोंके मिल जानेपर भी पाक प्रथम क्षणमें ही सिद्ध नहीं होता, योग्य समय लेकर ही सम्पन्न हुआ करता है। फिर भी यदि प्रथम क्षणमें भी उस पाकका कुछ भी अंश सिद्ध हुआ नहीं माना जायगा, तो द्वितीयादिक क्षणों में भी वह नहीं माना जा १-बर्तन्ते पदार्थाः, तेषां वर्तयिता कालः । स्वयमेव वर्तमानाः पदार्था वर्तन्ते यया सा कालाश्रया प्रयोजिका वृत्तिः वर्तना । व्रतुधातोः “ण्याश्रयोयुच्” (पा० अ० ३ पाद ३ सूत्र १०७) इतियुच । अथवा वृत्तिवर्तनशीलता अनुदात्तेतश्च हलादेः” (पा० अ० ३ पाद २ सूत्र १४९ । इतियुच् । अर्थात-प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीतैक समयस्वसत्तानुभूतिः वर्तना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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