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________________ सूत्र २१-२२ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २६७ भावार्थ – भविष्य में और वर्तमानमें जो शक्य है, युक्त है और न्याय्य है, उसको हित समझना चाहिये, और जो इसके विपरीत है, उसको अहित समझना चाहिये । प्रत्येक जीव परस्परको हिताहितका उपदेश देकर अनुग्रह किया करता है । जैसा उपदेशके द्वारा जीवोंका उपकार होता है, वैसा धनदानादिके द्वारा नहीं हो सकता । अतएव उसीको यहाँपर मुख्यतया उपकाररूपसे बताया है । यहाँपर उपकारका अर्थ निमित्त है, इसलिये अहितोपदेश अथवा अहितानुष्ठानको भी यहाँ उपकार शब्दसे ही कहा है । पहले यद्यपि उपयोग जीवका लक्षण बताया जा चुका है, परन्तु वह अन्तरङ्ग लक्षण है, और यह परस्परोपकारिता उसका बाह्य लक्षण है । भाष्यम् - अत्राह ---: -अथ कालस्योपकारः क इति ? अत्रोच्यते- अर्थ--प्रश्न--पंचास्तिकायरूप धर्मादिक द्रव्योंका उपकार क्या है, सो मालूम हुआ । परन्तु अकायरूप जो काल द्रव्य माना है, उसका अभीतक उपकार नहीं बताया । अतएव कहिये कि उसका क्या उपकार है ? भावार्थ - अभीतक सूत्रद्वारा जिनका उल्लेख किया गया है, वे धर्म अधर्म आकाश पुद्गल और जीव ये पाँच ही द्रव्य हैं। जबकि कालको अभीतक द्रव्यरूपसे बताया ही नहीं है, तब उसके उपकारके विषयमें प्रश्न करना युक्तिसंगत कैसे कहा जा सकता है । यह ठीक है, परन्तु आगे चलकर " कालश्च " ऐसा सूत्र भी कहेंगे । उस सुत्रके द्वारा जिसका उल्लेख किया जायगा उस कालका जबतक असाधारण लक्षण या उपकार नहीं बताया जाय, तबतक यह नहीं मालूम हो सकता, कि वह धर्मादिकमें ही अन्तर्भुत है, अथवा पदार्थान्तर है । और इसी लिये यह प्रश्न किया गया है, कि कालका क्या उपकार है ? उत्तरः सूत्र — वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ||२२|| भाष्यम् - तद्यथा - सर्वभावानां वर्तना कालाश्रया वृत्तिः । वर्तना उत्पत्तिः स्थितिरथ गतिः प्रथमसमयाश्रयेत्यर्थः । परिणामो द्विविधः - अनादिरादिमांश्च । तं परस्ताद् वक्ष्यामः । क्रिया गतिः, सा त्रिविधा - प्रयोगगतिः विश्वसागतिः मिश्रिकेति । परत्वापरत्वे त्रिविधे - प्रशंसाकृते, क्षेत्रकृते, कालकृते इति । तत्र प्रशंसाकृते परो धर्मः परं ज्ञानमपरोऽधर्मः अपरमज्ञानमिति । क्षेत्रकृते एक दिक्कालावस्थितयोर्विप्रकृष्टः परो भवति, सन्निकृष्टोऽपरः । कालकृते द्विष्टवर्षाद् वर्षशतिकः परोभवति, वर्षशतिकाद्विरष्टवर्षोऽपरो भवति । तदेवं प्रशंसाक्षेत्रकृते परत्वापरत्वे वर्जयित्वा वर्तनादीनि कालकृतानि कालस्योपकार इति ॥ I अर्थ – जो कार्यके द्वारा अनुमानसे मिद्ध है, और जिसका उल्लेख आगे चलकर किया जायगा, उस कालका उपकार वर्तना परिणाम क्रिया और परत्वापरत्व है। वह इस प्रकार से है, कि - प्रथम समयके आश्रयसे होनेवाली गति स्थिति उत्पत्ति और वर्तना ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । कालके आश्रयसे सम्पूर्ण पदार्थोंका Jain Education International , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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