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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ पंचमोऽध्यायः
उनका अस्तित्व जो बताया सो ठीक है । इसी प्रकार इनके अनन्तर जिसका पाठ किया है उस आकाशका भी उपकार क्या है, सो बताना चाहिये । अतएव सूत्र कहते हैं
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सूत्र - आकाशस्थ गाहः ॥ १८ ॥
भाष्यम् - - अवगाहिनां धर्माधर्मपुद्गल जीवानामवगाह आकाशस्योपकारः । धर्माधर्मयोरन्तः प्रवेशसम्भवेन पुद्गलजीवानां संयोगविभागैश्चति ।
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अर्थ — अवगाह करनेवाले धर्म अधर्म पुद्गल और जीव द्रव्य हैं । इनको अवगाह देना आकाशका उपकार है । इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्यके अवगाहमें उपकार अन्तः प्रवेश के द्वारा किया करता है, और पुद्गल तथा जीवोंके अवगाह में संयोग और विभागों के द्वारा भी उपकार किया करता है ।
भावार्थ- - धर्म और अधर्म द्रव्य पूर्ण लोकमें इस तरहसे सदा व्याप्त बने रहते हैं। कि उनके प्रदेशोंका लोकाकाशके प्रदेशोंसे कभी भी विभाग नहीं होता । अतएव इनके अवंगाहमें आकाश जो उपकार करता है, सो अन्तः अवकाश देकर करता है, किन्तु जीव और पुद्गल द्रव्यमें यह बात नहीं है । क्योंकि ये अल्पक्षेत्र - असंख्येय भागको रोकते हैं, और क्रिया वान् हैं । - एक क्षेत्र से हटकर दूसरे क्षेत्र में पहुँचते हैं । अतएव इनके अवगाहमें संयोग विभागों के द्वारा आकाश उपकार किया करता है । तथा अन्तः अवकाश देकर भी उपकार किया करता है । च शब्दके द्वारा जीव पुद्गलोंका उपकार दोनों प्रकारका होता है, यह सिद्ध किया है ।
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यद्यपि “ लोकाकाशेऽवगाहः " इस सूत्र में आकाशका स्वरूप या लक्षण पहले बता चुके हैं, कि सम्पूर्ण पदार्थों को अवगाह देना उसका कार्य है । अतएव पुनः यहाँ उसके बताकी आवश्यकता नहीं है, फिर भी यहाँपर उसके उल्लेख करनेका कारण है, और वह यह कि “ लोकाकाशेऽवगाहः " इस सूत्र में तो अवगाही पदार्थोंका प्राधान्य है, जिसका आशय यह है, कि जीव पुद्गलोंका अवगाह कहाँपर है ? तो लोकाकाशमें। इससे यह सिद्ध नहीं होता, कि अवगाह स्वभाव आकाशका ही है । अतएव यही बात यहाँपर इस सूत्र के द्वारा बताई है, कि आकाशका स्वभाव पदार्थों को अवगाह देना है, और यही उसका लक्षण है ।
बहुत से लोग आकाशका लक्षण शब्द मानते हैं । कोई प्रधानके विकारको आकाश कहते हैं । परन्तु ये सभी कल्पनाएं मिथ्या हैं । शब्द पुगलकी पर्याय है, जैसा कि आगे चलकर बताया जायगा, और जैसा कि उसके गुण स्वभावसे सिद्ध होता है । शब्द यदि आकाशका गुण होता, तो इन्द्रिय द्वारा उपलब्ध नहीं हो सकता था, और न मूर्त पदार्थके द्वारा रुक सकता था । एवं न मूर्त पदार्थके द्वारा उत्पन्न ही हो सकता था । अतएव वह पुगलकी
१ - वैशेषिक - यथा--" शब्दगुणकमाकाशम् ” । २ - साडूख्य ।
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