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________________ सूत्र १७ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २६१ अर्थ - प्रश्न- आपने पहले कहा था, कि धर्मादिक द्रव्यों का लक्षण आगे चलकर कहेंगे । सो अब कहिये कि उनका क्या लक्षण है ? उत्तर:--- सूत्र —– गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७ ॥ भाष्यम् - गतिमतां गतेः स्थितिमतां स्थितेरुपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारो यथा सङख्यम् । उपग्रहो निमित्तमपेक्षा कारणम् हेतुरित्यनर्थान्तरम् । उपकारः प्रयोजनं गुणोऽर्थ इत्यनर्थान्तरम् ॥ अर्थ - गतिमान् पदार्थोंकी गतिमें और स्थितिमान् पदार्थोंकी स्थितिमें उपग्रह करना - निमित्त बनना-सहायता करना क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार है । उपग्रह निमित्त अपेक्षा कारण और हेतु ये पर्यायवाचक शब्द हैं । तथा उपकार प्रयोजन और अर्थ गुण शब्दों एक ही अर्थ है । I भावार्थ - जीव और पुद्गल द्रव्य गतिमान् हैं । जिस समय ये गमनरूप क्रियामें परिणत होते हैं, उस समय इनके उस परिणमनमें बाह्य निमित्त कारण धर्म द्रव्य हुआ करता है, और जिस समय ये स्थित होते हैं, उस समय इनकी स्थितिमें अधर्म द्रव्य बाह्य सहायक हुआ करता है । ये दोनों ही द्रव्य उदासीन कारण हैं, न कि प्रेरक । प्रेरणा करके किसी भी द्रव्यको ये न तो चलाते हैं, न ठहराते हैं । यदि ये प्रेरक कारण होते, तो बड़ी गड़बड़ उपस्थित होती । न तो कोई पदार्थ गमन ही कर सकता था, न ठहर ही सकता था । क्योंकि धर्म द्रव्य यदि गमन करने के लिये प्रेरित करता, तो उसका प्रतिपक्षी अधर्म द्रव्य उन्हीं पदार्थों को ठहरनेके लिये प्रेरित करता । इसी प्रकार यदि ये द्रव्य लोक मात्रमें व्याप्त न होते, तो युगपत् सम्पूर्ण लोकमें जो पदार्थोंका गमन और अवस्थान हुआ करता है, सो नहीं बन सकता था । तथा ये द्रव्य आकाशके समान अनन्त भी नहीं है । यदि अनन्त होते, तो लोक और अलोकका विभाग नहीं बन सकता था । तथा लोकका प्रमाण और आकार ठहर नहीं सकता था । 1 धर्म और अधर्म द्रव्य अतीन्द्रिय हैं, फिर भी उनके उपकार प्रदर्शनके द्वारा आपने १ - गइ परिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं अच्छंतानेव सो ई ॥ १८ ॥ २- ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छन्ता व सो धरई ॥१९॥ ( द्रव्य संग्रह ) ३ – लोकालोकविभागौ स्तः लोकस्य सान्तत्वात्, लोकः सान्तः मूर्तिमद्द्रव्योपचितत्वात् प्रासादादिवत् । इस अनुमान परम्परासे लोककी सान्तता और सान्त लोकके सिद्ध होनेसे लोकालोकका विभाग सिद्ध होता है । परन्तु लोककी सान्ततामें और उसके प्रमाण तथा आकार के बने रहनेमें कोई न कोई बाह्य निमित्त भी अवश्य चाहिये । वे ही धर्म और अधर्म द्रव्य हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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