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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ पंचमोऽध्यायः
सकता,
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उसी प्रकार आत्मा भी नहीं कर सकता, अथवा जिस प्रकार दपिक अनित्य है, उसीप्रकार आत्मा भी अनित्य है, इत्यादि । क्योंकि दृष्टान्तमें और दाष्टन्तिमें सर्वथा समानता नहीं हो सकती । अन्यथा दृष्टान्त और दान्तका भेद ही नहीं रह सकता । अथवा स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार दीपकादिक भी सर्वथा अनित्य ही हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता । जिस प्रकार आकाश सर्वथा नित्य नहीं है, उसी प्रकार दीपक सर्वथा अनित्य नहीं है । क्योंकि जैनधर्ममें सभी वस्तु उत्पादादि त्रयात्मक मानी है ।
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भाष्यम्--अत्राह- सति प्रदेश संहारविसर्गसम्भवे कस्मादसंख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति नैकप्रदेशादिष्विति ? अत्रोच्यते--सयो गत्वात्संसारिणाम्, चरमशरीर त्रिभागहीनावगाहित्वाच्च सिद्धानामिति ॥
अर्थ - प्रश्न - जबकि जीव द्रव्यके प्रदेशों में संकोच और विस्तारका संभव है, फिर लोकके असंख्यातवें भागादिकमें ही उनके अवगाहका क्या कारण है ? एक प्रदेशादिक में भी उनका -- जीवोंका अवगाह क्यों नहीं हो सकता ? उत्तर- - इसका कारण यह है, कि जितने संसारी जीव हैं वे, सब सयोग - सशरीर हैं, और जो सिद्ध जीव हैं, वे चरम शरीर से त्रिभागही अवगाहको धारण करनेवाले हैं ।
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भावार्थ- - जब जीवका स्वभाव संकुचित और विस्तृत होने का है, और विस्तृत होकर लोकपर्यन्त विस्तृत हो भी जाता ही है, तो उसका संकोच भी अन्त्यपरिमाण - एक प्रदेशतक क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर - यह है, कि यद्यपि जीवमें संकुचित विस्तृत होने का स्वभाव है, फिर भी उस स्वभावकी अभिव्यक्ति परनिमित्त से ही हुआ करती है, और वह परनिमित्त पंचविध शरीर है । संसारी जीव इन शरीरोंसे आक्रान्त है | शरीरप्रमाण ही उसका अवगाह हो सकता है । शरीर पौगलिक होनेपर भी स्कन्धरूप है, वह एक दो तीन आदि प्रदेशों में नहीं रह सकता । वह कमसे कम अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें ही रह सकता है । क्योंकि शरीरकी अवगाहनाका जघन्य प्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग ही है । सिद्ध जीवोंका आकार जिस शरीरसे उन्होंने सिद्धि प्राप्त की है, उससे त्रिभोग कम रहता है । क्योंकि सिद्ध जीव कर्म और नोकर्मसे सर्वथा रहित हैं । फिर उनके लिये ऐसा कोई कारण शेष नहीं रहता, कि जिसके वश उनके प्रदेशोंमें संकोच विस्तार हो सके, इसी लिये शरीरसे छूटते समय उनका जितना प्रमाण होता है, उतना ही तदवस्थ बना रहता है । विना निमित्तके फिर संकोच विस्तार हो भी कैसे सकता है । अतएव जीवोंका अवगाह एक आदि प्रदेशों में नहीं, किंतु असंख्येय भागादिकमें ही संभव है ।
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भाष्यम् – अत्राह-उक्तं भवता धर्मादीनस्तिकायान् परस्तालक्षणतो वक्ष्याम इति । तत् किमेषां लक्षणमिति ? अत्रोच्यते ॥
१ - शरीर के भीतर जो पोलका भाग है, जिसमें कि वायु भरी रहती है, उतना भाग संकुचित होकर कम हो जाता है ।
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