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सूत्र १५-१६ । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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क्षेत्रको विषम संख्यावाला क्यों होना चाहिये ? अतएव जीवका अवगाह लोकके असंख्यातवें भाग आदिमें होता है, इसका क्या कारण है ?
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सूत्र - प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥
भाष्यम् -- जीवस्य हि प्रदेशानां संहारविसर्गाविष्टौ प्रदीपस्येव । तद्यथा-तैलवर्त्यग्न्युपादानवृद्धः प्रदीपो महतीमपि कूटागारशालां प्रकाशयत्यण्वीमपि । माणिकावृतः माणिकां द्रोणावृतो द्रोणमा ढकावृतश्चाढकं प्रस्थावृतः प्रस्थं पाण्यावृतः पाणिमिति । एवमेव प्रदेशानां संहारविसर्गाभ्यां जीवो महान्तमणुं वा पञ्चविधं शरीरस्कन्धं धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवप्रदेशसमुदायं व्याप्नोतीत्यवगाहत इत्यर्थः । धर्माधर्माकाशजीवानां परस्परेण पुद्गलेषुच वृत्तिर्न विरुध्यतेऽमूतत्वात् ।
अर्थ - - दीपक के समान जीव द्रव्यके प्रदेश में संहार और विसर्ग अर्थात् संकोच और विस्तारका स्वभाव माना हैं, यही कारण है, कि उसका अवगाह लोकके असंख्यातवें भाग आदिमें भी हो सकता है
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भावार्थ -- तेल बत्ती और अग्निरूप उपादान कारणोंके द्वारा उत्पन्न और वृद्धिको प्राप्त हुआ जो दीपक घरकी बड़ी बड़ी शालाओंको प्रकाशित करता है, वही छोटे छोटे कमरें को भी प्रकाशित करता है । मानीसे आवृत मानीको, द्रोणसे आच्छादित द्रोणको, आढकसे ढका हुआ आढक को, और प्रस्थसे आवृत प्रस्थ को, तथा हाथसे ढका हुआ हाथ को प्रकाशित करता है । इसी प्रकार जीव भी अपने प्रदेशों के संहार विसर्ग-संकोच विस्तार के कारण मोटे और छोटे पञ्चविध शरीर स्कन्धको व्याप्त किया करता है- धर्म अधर्म आकाश पुद्गल और जीवके प्रदेश समूहका अवगाहन किया करता है । धर्म अधर्म आकाश और जीव द्रव्य परस्परमें भी अवगाहन कर सकते हैं, और इन सबका अवगाह पुद्गलोंमें भी हो सकता है । इनकी यह अवगाहवृत्ति विरुद्ध - प्रमाणबाधित या असंगत नहीं हैं; क्योंकि ये अमृर्त द्रव्य हैं ।
भावार्थ:- जीवका स्वभाव ही ऐसा है, कि अवगाहके योग्य जितने बड़े शरीरानुसार क्षेत्रको वह पाता है उतनेमें ही अवगाह कर लेता है । जब वह शरीर रहित हो जाता है, तब उसका प्रमाण अन्त्य शरीरसे तीसरे भाग कम रहता है । किंतु सशरीर अवस्था में असंख्यातवें भागसे लेकर सम्पूर्ण लोकतकर्मे निमित्त के अनुसार व्याप्त हुआ करता है । कभी तो महान् अवकाशको छोड़कर थोड़े अवकाशको संकुचित होकर घेरता है । और कभी थोड़े अवकाशको छोड़कर महान् अवकाशको विस्तृत होकर घेरता है । जघन्य अवकाशका प्रमाण लोकका असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट प्रमाण सम्पूर्ण लोक है । इसके मध्यकी अवस्थाएं अनेक हैं ।
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दीपकका दृष्टान्त जो दिया है, सो संकोचविस्तार स्वभावको दिखानेके लिये है, उसका यह अभिप्राय नहीं है, कि जिस प्रकार दीपक सम्पूर्ण लोकको व्याप्त नहीं कर
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