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________________ २५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पंचमोऽध्यायः पुद्गल प्रभृति द्रव्य किस तरह समा सकते हैं । थोड़े क्षेत्रमें अधिक प्रमाणवाली वस्तु कैसे आ सकती है। क्या एक घटमें सम्पूर्ण समुद्रोंका जल आ सकता है ? परन्तु यह शंका टीक नहीं है। क्योंकि परिणमन विशेषके द्वारा ऐसा भी संभव हो सकता है, कि छोटे क्षेत्रमें अधिक प्रमाणवाली वस्तु आ जाय । जैसे कि एक मन रुई की जगहमें कई मन लोहा या पत्थर आ सकता है। अथवा एक ही कमरेमें अनेक दीपकोंका प्रकाश समा सकता है, उसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये । जीव द्रव्यका अवगाह कितने क्षेत्रमें होता है, सो बताते हैं: सूत्र-असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५ ॥ भाष्यम्--लोकाकाशप्रदेशानामसंख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति, आ सर्वलोकादिति ॥ अर्थ-लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं, उनके असंख्यातवें भागसे लेकर सम्पूर्ण लोक पर्यन्तमें जीवोंका अवगाह हुआ करता है। भावार्थ-यह कथन प्रत्येक जीवकी अपेक्षासे है। प्रत्येक जीवका अवगाह्य क्षेत्र कमसे कम लोकका असंख्यातवाँ भांग और ज्यादः से ज्यादः सम्पूर्ण लोकतक हो सकता है। सूत्रमें " जीवानाम् " ऐसा बहुवचन जो दिया है, सो जीव अनन्त हैं, इसलिये दिया है। कोई एक जीव एक समयमें लोकके एक असंख्यातवें भागको रोकता है, तो वही जीव दूसरे समयमें अथवा कोई दूसरा जीव लोकके दो असंख्यातवें भागोंको रोकता है, कभी तीन चार आदि भागोंको या संख्येय भागोंको अथवा सम्पूर्ण लोकको भी रोकता है। संपूर्ण लोकमें व्याप्ति समुद्धातकी अपेक्षासे है। क्योंकि जब केवली भगवान् समुद्धात करते हैं, उस समय उनकी आत्माके प्रदेश क्रमसे दंड कपाट प्रतर और लोकपर्ण हुआ करते हैं। भाष्यम्-अत्राह-को हेतुरसंख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवतीति। अत्रोच्यते___अर्थ-प्रश्न-जब कि जीवके प्रदेश लोकाकाशकी बराबर हैं, तब उसको भी धर्म द्रव्यकी तरह पूर्ण लोकमें ही रहना चाहिये। समान संख्यावाले प्रदेश जिन द्रव्योंके हों, उनके १-क्योंकि अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीरकी जघन्य अवगाहना मानी है। २-पहले दण्ड समुद्घातमें केवलीके प्रदेश ऊर्ध्व और अधो दिशाकी तरफ निकलकर लोकके अन्ततक और विष्कम्भमें शरीर प्रमाण ही फैलकर दण्डाकार परिणत होते हैं । दूसरे समयमें वे ही प्रदेश चौड़े होकर वातवलयको छोड़कर लोकके अन्ततक जाकर कपाटके आकारमें बन जाते हैं। तीसरे समयमें वे ही प्रदेश वातवलयके सिवाय पूर्ण लोकमें फैल जाते हैं, उसको प्रतर कहते हैं । चौथे समयमें जब वे ही प्रदेश फैलकर सम्पूर्ण लोकमें ध्याप्त हो जाते हैं, तब लोकपूर्ण समुद्घात कहा जाता है । पीछे उसी क्रमसे चार ही समयमें संकुचित होते हैं, लोकपूर्णसे प्रतर, प्रतरसे कपाट, कपाटसे दण्ड, और दंडसे शरीराकार हो जाते हैं। आयुकर्मकी स्थितिके बरावर शेष काँकी स्थितिको करने के लिये यह समुद्घात होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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