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________________ सूत्र १८-१९ ।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ही पर्याय है। जो प्रधानका विकार मानते हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि नित्य निरवयव और निष्क्रिय प्रधानका अनित्य सावयव और सक्रिय शब्दरूप परिणमन कैसे हो सकता है । यहाँपर यह शंका भी हो सकती है, कि अवगाह द्विष्ठ धर्म है । अतएव जिस प्रकार आकाशमें वह कहा जाता है, उसी प्रकार अवगाही जीव पुद्रलमें भी कहा जा सकता है, परन्तु यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँपर अधेयकी प्रधानता नहीं है, आधार ही की प्रधानता है । अतएव आकाशका ही लक्षण मानना उचित है । क्रमानुसार पुद्गल द्रव्यका उपकार बताते हैं:-- सूत्र-शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९ ॥ भाष्यम् । पञ्चविधानि शरीराण्यौदारिकादीनि वाड्मनः प्राणापानाविति पुद्गलानामुपकारः। तत्र शरीराणि यथोक्तानि । प्राणापानौ च नामकर्माण व्याख्यातौ। द्वीन्द्रियादयो जिह्वेन्द्रियसंयोगात् भाषात्वेन गृह्णन्ति नान्ये, संज्ञिनश्चमनस्त्वेन गृह्णन्ति नान्ये इति। वक्ष्यते हि-"सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त इति॥ अर्थ-शरीर वचन मन और प्राणापान यह पुद्गल द्रव्यका उपकार है। औदारिक आदि शरीर पाँच प्रकारके हैं, इनका स्वरूप पहले बता चुके हैं । प्राणापानका नामकर्मके प्रकरणमें व्याख्यान किया है । द्वीन्द्रिय आदि जीव जिह्वा इन्द्रियके द्वारा भाषारूपसे पुद्गलोंको ग्रहण करते हैं, और दूसरा कोई ग्रहण नहीं करता । जो संज्ञी जीव हैं, वे मन रूपसे उनको ग्रहण करते हैं, और दूसरा कोई ग्रहण नहीं करता । यह बात आगे चलकर भी कहेंगे, कि सकषायताके कारणसे जीव कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण किया करता है । भावार्थ-पुद्गल स्कन्धोंके सामान्यतया २२ भेद हैं । जिनमेंसे ५ भेद ऐसे हैं, जोकि खासकर जीवके ग्रहण करनेमें आते हैं। वे पाँच भेद दो भागोंमें विभक्त हैं कार्माणवर्गणा- और नोकर्मवर्गणा । जिनसे ज्ञानावरणादिक आठ कर्म बनते हैं, उनको कार्माणवर्गणां कहते हैं, जिनसे शरीर पर्याप्ति और प्राण बनते हैं, उनको नोकर्मवर्गणा कहते हैं। इसके चार भेद हैं-आहारवर्गणा भाषावर्गणा मनोवर्गणा और तैजसवर्गणा । कार्माणवर्गणाओंको योगमें प्रवृत्त सकषाय जीव ग्रहण किया करता है, यह बात आगे चलकर लिखेंगे। शरीरके योग्य पुद्गल वर्गणाओंका ग्रहण संसारी जीवमात्रके हुआ करती है। प्राणापान पर्याप्त जीवोंमें ही पाया जाता है। भाषावर्गणाका ग्रहण द्वीन्द्रियादिक जीव ही किया करते हैं। जिससे हृदयस्थ अष्टदल कमलके आकारका द्रव्य मन बना करता है, उन मनोवर्गणाओंका ग्रहण संज्ञी जीवके ही हुआ करता है । इन कर्म और नोकर्मोंके १-ऊष्मगुणः सन्दीपः स्नेहवा यथा समादत्ते । आदाय शरीरतया परिणमयति चाथ तस्नेहम् । तद्वत् रागादिगुणः स्वयोगवात्मदीप आदत्ते । स्कन्धानादाय तथा परिणमयति तांश्च कर्मतया ॥ २-नोकर्मके विषयमें औदारिक वैक्रियिक और आहारक इन तीन ही कौकी प्रधानता है । ये तीनों शरीर और प्राणापान आहारवर्गणाके द्वारा बना करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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