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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
सूत्र - नाणोः ॥ ११ ॥
भाष्यम् - अणोः प्रदेशा न भवन्ति । अनादिरमध्योऽप्रदेशो हि परमाणुः । अर्थ - परमाणु के प्रदेश नहीं होते । उसके आदि मध्य और प्रदेश इनमें से कुछ भी नहीं हैं।
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भावार्थ-यहाँपर प्रदेशोंका जो निषेध किया है, सो द्रव्यरूप प्रदेशोंका ही है, तथा इसका भी अभिप्राय यह है, कि परमाणु स्वयं प्रदेशरूप है - एक प्रदेशवान् है, उसके द्वितीया. दिक प्रदेश नहीं हैं । अर्थात् द्वितीयादिक प्रदेशों का ही निषेध है, न कि एक प्रदेशात्मकताका । इसी लिये उसके आदि और मध्यका भी निषेध किया है । क्योंकि जो अनेक प्रदेशी होगा उसीमें आदि मध्य विभाग हो सकते हैं । जो एक प्रदेशी है, वह अपना एक प्रदेश ही रखता है, फिर उसमें आदि मध्यका विभाग कैसे हो सकता है ?
[ पंचमोऽध्यायः
धर्म अधर्म पुद्गल और जीव द्रव्य आकाशके समान आत्मप्रतिष्ठ - निराधार हैं, अथवा आधार की अपेक्षा नहीं रखते हैं ? उत्तर - निश्चयनयसे सभी द्रव्य आत्मप्रतिष्ठ हैं, - आधार की अपेक्षा नहीं रखते । अतएव धर्म अधर्म पुद्गल और जीव द्रव्य भी वास्तवमें अपने आधारपर ही स्थित हैं । किन्तु व्यवहारनयसे देखा जाय तो—
सूत्र - लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥
भाष्यम् - अवगाहिनामवगाहो लोकाकाशे भवति ॥
अर्थ:- प्रवेश करनेवाले पुद्गलादिकों का अवगाह - प्रवेश लोकाकाशमें होता है ।
भावार्थ:- कहीं पर भी समा जानेको या स्थान-लाभ करनेको अवगाह कहते हैं, सभी द्रव्य लोकाकाशमें ठहरे हुए हैं । परन्तु उनका ठहरना दो प्रकारका है । - सादि और अनादि । सामान्यतया सभी द्रव्य अनादिकालसे लोकाकाशमें ही समाये हुए हैं । किन्तु विशेष दृष्टि जीव और पुद्गलका अवगाह सादि कहा जा सकता है । क्योंकि ये दोनों ही द्रव्य सक्रिय - गतिशील हैं, इनमें क्षेत्रसे क्षेत्रान्तर हुआ करता है । अतएव इनका लोकाकाशके भीतर ही कभी कहीं और कभी कहीं अवगाह होता है । परन्तु धर्म अधर्म द्रव्य ऐसे नहीं है । वे नित्यव्यापी हैं | अतएव उनका अवगाह सम्पूर्ण लोक में सदा तदवस्थ रहता है-नित्य है |
धर्मादिक द्रव्य लोकमें किस प्रकार व्याप्त हैं, और कितने भागमें व्याप्त हैं, यह बात सूत्र द्वारा अभीतक अनुक्त है, अतएव इसी बात को बतानेके लिये सूत्र करते हैं:सूत्र - धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥
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भाष्यम् -- धर्माधर्मयोः कृत्स्ने लोकाकाशेऽवगाहो भवतीति ॥ अर्थ - धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यका अवगाह पूर्ण लोकाकाशमें है ।
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