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________________ सूत्र ९-१० । ] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २५९ देखा जाय, तो लोकाकाशके प्रदेश धर्म द्रव्यके अथवा अधर्म द्रव्यके यद्वा एक जीव द्रव्यके प्रदेशोंकी बराबर हैं । - भावार्थ — विशेष दृष्टिले यदि देखा जाय, तो जीव और अजीव द्रव्यका आधारभूत लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है । अर्थात् बाकीका अलोकाकाश अनन्त - अपर्यवसान है, क्योंकि अनन्त से असंख्यात कम हो जानेपर भी अनन्त ही शेष रहते हैं । धर्म अधर्म एक जीव द्रव्य और लेकाकाश इन चारोंके प्रदेश बिलकुल समान हैं, किसीके भी न कुछ कम हैं न अधिक । I क्रमानुसार पुद्गल द्रव्य के प्रदेशोंकी संख्या बताते हैं << सूत्र - संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ भाष्यम् - संख्येया असंख्येया अनन्ताश्च पुद्गलानां प्रदेशा भवन्ति । अनन्ता इति वतते । अर्थ — इस सूत्र में पर्वसूत्र से अनन्त शब्द की अनुवृत्ति आती है । अतएव इसका आशय यह है, कि पुद्गल द्रव्य के प्रदेश संख्यात असंख्यात और अनन्त इस तरह तीनों ही प्रकार के होते हैं । - भावार्थ — जिसमें पूरण गलन स्वभाव पाया जाय, उसको पुद्गल कहते हैं । इनकी परमाणुले लेकर महास्कन्ध पर्यन्त अनेक विचित्र अवस्थाएं हैं । संख्यात परमाणुओं का स्कन्ध संख्यात प्रदेशी, असंख्यात परमाणुओं का स्कध असंख्यात प्रदेशी, और अनन्त परमाणुओं का स्कन्ध अनन्त प्रदेशी कहा जाता है । यद्यपि मूत्र में अनन्त प्रदेशिताका उल्लेख नहीं किया है, परन्तु च शब्द के द्वारा पूर्वसूत्रसे अनन्त शब्दका अनुकर्षण होता है । अणु और स्कन्ध इस तरह पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं । जब कि अणु भी पुद्गल द्रव्य है, क्योंकि वह भी परण गलन स्वभावको धारण करनेवाला है, तो पुद्गल द्रव्य के प्रकरण में उसके भी प्रदेश बताने चाहिये | किन्तु यहाँपर स्कन्धों के ही प्रदेश बताये हैं । सो क्या अणु के प्रदेश ही नहीं है ? यदि यही बात है, तब तो उसको असद्रूप कहना चाहिये । यदि हैं तो कितने हैं ? संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेशों के होनेपर वह अणु नहीं कहा जा सकना । किन्तु पुनर द्रव्यके प्रदेश तीन ही प्रकारके बताये हैं, सो तानों में से यदि किसी भी प्रकार के प्रदेश नहीं माने जायँगे, तो अणुमें पुलत्व के अभावका प्रसङ्ग आवेगा । उत्तर- अनेक द्रव्य परमाणुओंके द्वारा जिस प्रकार घटादिक पुद्गलस्कन्ध सप्रदेश हैं, उस प्रकार परमाणु नहीं हैं, । वह किस प्रकारका है, सो बतानेके लिये सूत्र करते हैं- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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