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________________ २५४ रायचन्दजैन शास्त्रमालायाम् [पंचमोऽध्यायः जीवके प्रदेश कितने हैं ? तो उनका भी प्रमाण अरख्यात ही है। जितने प्रोश लोका काश और धर्म तथा अधर्म द्रव्यके हैं, उतने ही प्रदेश एक एक जीव द्रव्यके भी हैं । भावार्थ----यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि धर्म और अधर्म द्रव्यके अनंतर पठित क्रमके अनुसार आकाश द्रव्यके प्रदेश बताने चाहिये, सो न बताकर उससे पहले जीव द्रव्यके प्रदेशों को बतानेका क्या कारण है ? उत्तर- इस क्रम भंगका कारण यह है, कि इसके द्वारा पहले समान संख्यावाल द्रव्यके प्रदेशे को बता दिया जाय । प्रश्न-यदि यही बात है, तो एक योग करना ही उचित था—पूर्वमूत्रमें ही धर्म अधर्मके साथ एक जीव द्रव्यका भी पाठ कर देना चाहिये था, सो न करके पृथक् क्यों किया ? उत्तर-इसका कारण यह है, कि इस समथ्यसे आचार्यका अभिप्राय जव द्रव्यके एक संकोच विकास स्वभावको भी साथमें बतानेका है । अन्यथा यह भ्रम हो सकता था, कि धर्म अधर्मक समान जीव व्यके प्रदेश भी सम्पूर्ण लोकमें सतत फेले हुए ही रहते होंगे । परन्तु यह बात नहीं है, धर्म और अधर्म द्रव्यके प्रदेश सतत लोको विस्तृत ही रहते हैं-जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं-न घटते हैं न बढ़ते हैं । किन्तु जीवके प्रदेश संकुचित और विस्तृत हुआ करते हैं। क्योंकि जीव शरीरप्रमाण रहा करता है। जब हाथोके शरीरमें जीव रहता है, तब उसके वे सम्पूर्ण प्रदेश हाथीके शरीरके बराबर हो जाते हैं, और जब जीव उस शरीरसे निकलकर चीटीके शरीरमें पहुँचता है, तब उसके वे ही सब प्रदेश संकुचित होकर चींटीके शरीर के आकार और प्रमाणमें हो जाते हैं। यदि चींटाके शरीरसे निकलकर हाथीके शरीरमें जाता है, तब वे ही प्रदेश विस्तृत हेकर हाथीके शरीरप्रमाण हो जाते हैं । इसी तरह सम्पर्ण जीवोंके विषयमें समझना चाहिये । क्रमानुसार आकाश द्रव्यके प्रदेशोंकी इयत्ता बताते हैं: सूत्र--आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ भाष्यम्-लोकालोकाकाशस्यानन्ताः प्रदेशाः । लोकाकाशस्य तु धर्मा बर्मेकजी वैस्तुल्याः ॥ अर्थ-सूत्रमें आकाश शब्दका सामान्यतया पाठ किया है । अतएव लोक या अलोक दोनोंके पृथक् पृथक् प्रदेशोंको न बताकर दोनोंके समुदायरूपमें ही बताते हैं, कि लोकाकाश और अलोक काश दोनोंके मिलकर अन्न्ते प्रदेश हैं। यदि विभागकी अपेक्षा रखकर १-समुद्घात अवस्था में शीरके बाहर भी जीवके प्रदेश निकल जाते हैं। फिर भी जीवको शरीप्रमाण ही कहा जाता है, क्योंकि समुद्रात के अनंतर प्रदशोंके संकुचित होकर शरीरमाण हो जानेपर ही मरण हुआ करता है। २-यहाँ पर अनन्त २.ब्द से अक्षयानन्त राशि ही लेनी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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