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समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
सूत्र -- असख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ॥ ७॥
भाष्यम् - प्रदेशो नामापेक्षिकः सर्वसूक्ष्मस्तु परमाणोरवगाह इति ॥
अर्थ - उपर्युक्त पाँच द्रव्योंमेंसे धर्म और अधर्म द्रव्यके असंख्यात प्रदेश हैं, अर्थात् प्रत्येक द्रव्यके असंख्यात असंख्यात प्रदेश हैं । धर्मद्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी है, और अधर्म द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी ही है । प्रदेश शब्दसे आपेक्षिक और सबसे सूक्ष्म परमाणुका अवगाह समझना चाहिये ।
सूत्र ७–८। ]
भावार्थ — परमनिरुद्ध निरवयव देशको प्रदेश कहते हैं । इसका स्वरूप समझने में द्रव्यपरमाणुकी अपेक्षा है । क्योंकि उसकी अपेक्षा से ही प्रदेशका स्वरूप आगममें बताया है । जितने देशको एक द्रव्य परमाणु रोकता है, उसको प्रदेश कहते हैं । सबसे सुक्ष्म कहनेका अभिप्राय यह है, कि जितने क्षेत्रमें एक द्रव्यपरमाणुका अवगाहन होता है, उतने ही क्षेत्रमें अनेक परमाणुओंका तथा तन्मय स्कन्धका भी अवगाहन हुआ करता है, और हो सकता है । परन्तु कोई भी एक परमाणु ऐसा नहीं है, कि दो प्रदेशों का अवगाहन करता हो । अतएव परमाणुके सबसे सूक्ष्म अवगाहको ही प्रदेश समझना चाहिये । दूसरी बात यह भी है, कि धर्म अधर्म आकाश और जीवों के प्रदेश आपेक्षिक होकर भी सूक्ष्म ही हैं न कि स्थल ।
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यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है, कि अवगाह गुण और अवगाहन देनेका कार्य आकाशका ही है, अतएव प्रदेश भी वास्तवमें आकाशके ही हो सकते हैं, न कि धर्मादिकों के ? सो ठीक है । यदि ऐसा भी माना जाय, तो भी कोई आपत्ति नहीं है । प्रदेशका स्वरूप मालूम हो जानेपर धर्मादिकके प्रदेशों की भी इयत्ता मालूम हो सकती है । क्योंकि लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं, उन्हीं में धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यके भी प्रदेश व्याप्त होकर अवगाह कर रहे हैंरह रहे हैं । अतएव धर्म और अधर्म दोनों ही द्रव्योंके प्रदेश बराबर हैं, यही बात यहाँपर व्यक्त की गई है।
असंख्यात प्रदेशका प्रकरण उपस्थित है, और जीवके भी उतने ही प्रदेश माने हैं जितने कि धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्यके हैं, अतएव उसके भी प्रदेशोंकी संख्याका नियम • बतानेके लिये सूत्र करते हैं:
सूत्र - जीवस्य ॥ ८॥
भाष्यम् -- एकजीवस्य चासख्येयाः प्रदेशा भवन्तीति ॥
अर्थ -- ज्ञान दर्शनरूप उपयोग स्वभाववाले जीवद्रव्य अनन्त हैं । उनमें से प्रत्येक
१ - लोककी बराबर असंख्यात प्रदेशी धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य दोनों ही हैं । २ - जैसा कि पहले लिखा जा चुका है । ३ - " सव्त्राणुद्राणदाणरिहं । ” ( द्रव्यसंग्रह )
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