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________________ २५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पंचमोऽध्यायः सभी द्रव्योंके प्रदेश हुआ करते हैं । किन्तु अवयव स्कन्धोंके ही हुआ करते हैं। जैसा कि " अणवः स्कन्धाश्च" और " सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते " इनके द्वारा अभिप्राय स्पष्ट करेंगे। भावार्थ-इसी अध्यायके प्रारम्भके-पहले ही सूत्रमें “ अजीवकाया" शब्दका प्रयोग किया है, और उसमें काय शब्दका अर्थ-" प्रदेशावयवबहुत्व " ऐसा किया है, जिसका अभिप्राय प्रदेशोंका बहुत्व और अवयवोंका बहुत्व होता है। परन्तु प्रदेश और अवयवोंके विषयमें कोई भी अभीतक नियम नहीं बताया है। अतएव पूंछनेवालेका आशय यह है, कि प्रदेश किसको कहते हैं, और अवयव किसको कहते हैं ? तथा धर्मादिक द्रव्योंमें से किसके कितने किस प्रकारसे समझना ? उत्तर-धर्म अधर्म आकाश और जीव तथा पद्ल द्रव्यके भी प्रदेश हुआ करते हैं । परमाणुके प्रदेश-निषेधका अभिप्राय यह है, कि उसके द्वितीयादिक प्रदेश नहीं होते, क्योंकि निरवयव पुद्गल द्रव्यांशको एकप्रदेशी माना है। जितनेमें एक मर्तिमान् द्रव्य-परमाणु आ जाय, उतने भागको प्रदेश कहते हैं। जो स्वभावसे ही पृथक् पृथक् हो सकें, अथवा प्रयोगपूर्वक जो पृथक् पृथक् किये जा सकें, या हो सकें, उनको अवयव कहते हैं । धर्म अधर्म आकाश और जीव इनमें प्रदेश हैं, परन्तु अवयव नहीं हैं, क्योंकि ये अखण्ड द्रव्य हैं। पुद्गल द्रव्य दो प्रकारके हैं-अणु और स्कन्ध । अणु भी दो प्रकारके हैं-द्रव्यपरमाणु और भावपरमाणु । स्कन्धके द्वयणुकादिके भेदसे अनेक भेद हैं । इनमेंसे परमाणुके लिये भाष्यकारने प्रदेशका निषेध किया है, इसका यह अर्थ नहीं है, कि स्कन्धोंके प्रदेश होते हैं। क्योंकि ऊपरके कथनसे यह बात तो स्पष्ट ही हो चुकी, कि प्रदेश अखण्ड द्रव्यके हुआ करते हैं। और स्कन्धोंमें भेद तथा संघात दोनों बातें पाई जाती हैं । अतएव स्कन्धोंके लिये अवयव शब्दका प्रयोग हुवा करता है, और धर्मादिकके लिये प्रदेश शब्दका प्रयोग हुआ करता है, जो द्रव्यपरमाणु है, उसके प्रदेश नहीं है, ऐसा ही कहा जाता है, क्योंकि उसके एक ही प्रदेश मानौ है, दो आदिक नहीं । भावपरमाणुके लिये यह नियम नहीं है। इस कथनसे धर्मादिकके बहुत प्रदेश हैं, यह बात मालूम हुई, परन्तु वे कितने कितने हैं, सो नहीं मालूम हुवा । अतएव उनकी इयत्ता बतानेके लिये सूत्र करते हैं। - १-यहाँपर पर्यायांश परमाणुका ग्रहण नहीं समझना । क्योंकि इन्होंने प्रशमरति श्लोक २०८ में लिखा है, कि “परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजनीयः।” २–“निरवयवः खलु देशः खस्य क्षेत्रप्रदेश इति दृष्टः " ३-पुद्गल द्रव्यके सबसे छोटे खण्डको द्रव्यपरमाणु और उसके रूपादि पर्यायांशोंको भाव परमाणु कहते हैं । दिगम्बर सम्प्रदायमें परमाणुके दो भेद नहीं माने हैं । गुणांशोंको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। ४--" नाणोः" इस सूत्रके द्वारा अणुके प्रदेशोंका जो निषेध किया है, उसका तात्पर्य पूर्वसूत्रमें उल्लिखित प्रदेशोंके निषेध करनेका है। पहले सूत्र में संख्यात असंख्यात और अनन्तका उल्लेख है । किन्तु एक प्रदेश तीनोंमेंसे किसी में भी नहीं आता, क्योंकि संख्यात राशि दोसे शुरू होती है। एकको संख्यामें न लेकर सख्याके वाच्यमें लिया है। ५-जैसा कि प्रशमरतिका वाक्य पहले दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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