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________________ सूत्र ५-६ । ] सभाध्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उक्त द्रव्यों को और भी विशेषताको बतानेके लिये सूत्र करते हैं: -- सूत्र--निष्क्रियाणि च ॥ ६ ॥ भाष्यम् - आ आकाशादेव धर्मादीनि निष्क्रियाणि भवन्ति । पुलजीवास्तु क्रिया वन्तः । क्रियेति गतिकर्माह ॥ २५१ अर्थ – धर्मादिक - आकाशपर्यन्त तीनों ही द्रव्य निष्क्रिय हैं । किन्तु पुद्गल और जीव -- ये दोनों द्रव्य क्रियावान् हैं । यहाँपर क्रिया शब्दने गति कर्मको लिया है । 1 भावार्थ - क्रिया दो प्रकारकी हुआ करती हैं। एक तो परिणामलक्षणा दूसरी परिस्पन्दलक्षणा | अस्ति भवति आदि क्रियाएं जोकि वस्तु के परिणमनमात्रको दिखाती हैं, उनको परिणामलक्षणा कहते हैं । जो एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्रतक वस्तुको लेजाने में अथवा उसका अकारान्तर बनानेमें कारण है, उसको परिस्पन्दलक्षणा क्रिया कहते हैं । यदि प्रकृतमें परिणामलक्षणा क्रिया ली जाय, तो धर्मादिक द्रव्यों के अभावका प्रसङ्ग आती है । क्योंकि कोई भी द्रव्य कूटस्थनित्य नहीं हो सकता । तदनुसार धर्मादिक में भी कोई न कोई परिणमन पाया ही जाता है । अस्ति भवति गत्युपग्रहं करोति आदि क्रियाओं का संभव व्यवहार धर्मादिक में भी होता ही है । अतएव परिस्पन्दलक्षणा क्रियाका ही धर्मादिकमें निषेध समझना चाहिये । जीव और पुद्गल द्रव्य सक्रिय हैं; क्योंकि ये गतिमान् हैं, और इनके अनेक आकाररूप परिणमन होते हैं । धर्मादिक द्रव्योंका जो आकार है, वह अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक वही रहेगा । अर्थात् जीव पुद्गल के समान धर्म अधर्म और आकाश द्रव्यका न तो आकारान्तर ही होता है, और न क्षेत्रान्तर में गमन ही होता है । भाष्यम् - अत्राह -- उक्तं भवता प्रदेशावयवबहुत्वं काय संज्ञामिति । तत् क एष धर्मादीनां प्रदेशावयवनियम इति ? अत्रोच्यते । -- सर्वेषां प्रदेशाः सन्ति अन्यत्र परमाणोः । अवयवास्तु स्कन्धानामेव । वक्ष्यते हि - " अणवः स्कन्धाश्च । सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते । अर्थ - प्रश्न- आपने इसी अध्यायकी आदि काय संज्ञाके द्वारा प्रदेश और अवयवोंके बहुत्वको बताया है । अतएव इस विषय में यह जानने की आवश्यकता है, कि धर्मादिक द्रव्योंके प्रदेश और अवयवोंके लिये नियम क्या और कैसा है ? उत्तर - एक परमाणु के सिवाय १- अवगाह्णादओ नणु गुणत्तओ चैव पत्तम् । उप्पादा दिसभावा तह जीवगुणावि का दोसो || अवगाढारं च विणा कसोऽवगाहोत्ति तेण संजोगो । उप्पत्ती सोऽवस्सं गच्चुत्रकारादओ चैवं ॥ ण य पज्जयतो भिष्णं दव्वमिगं ततो जतो तेण । तण्णासंमि कहं वा नभादओ सहा णिच्चा ॥ विशेषावश्यके नमस्कारनिर्युक्तौ गाथा - २८२१-२३ ) २-निष्क्रिय णि च तानीति परिस्पन्दविमुक्तितः । सूत्रिनं त्रिजगद्वय विरूपाणं स्पन्दहानितः ॥ १ ॥ सामर्थ्यात्सक्रियौ जीवपुद्गलाविति निश्चयः । जीवस्य निष्क्रियत्वे हिन क्रियाहेतुता तनौ ॥ २ ॥ नन्वेवं न क्रियत्वेपि धर्मादीनां व्यवस्थितः । नस्युः स्वयमभिनेता जन्नस्थानव्ययक्रियाः ॥ ७ ॥ इत्यपातं परिस्पन्दक्रियायाः प्रतिषेधनात् । उत्पाद दा. दिक्रियासिद्धेरन्यथा सत्त्वानितः ॥ ९ ॥ ( श्रीविद्यानन्दस्वामी, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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