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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चमोऽध्यायः तथा पृथिवी जल अग्नि और वायुसे भिन्न भिन्न द्रव्य और उनके परमाणुओंको सर्वथा भिन्न भिन्न जो बताया है, से भी ठीक नहीं है । ये सब एक पुद्गल द्रव्यकी ही पर्याय हैं ।
इस सूत्रमें बहुवचनका प्रयोग जो किया है, सो बहुत्व संख्याको दिखानेके लिये है। क्योंकि मलमें पदल द्रव्यके दो भेद हैं, अणु और स्कन्ध । इनके भी उत्तरभद अनेक हैं, जैसा कि आगके कथनसे मालूम होगा। परन्तु कोई भी भेद ऐसा नहीं है, जो रूपादि युक्त न हो। रूपादिके साथ पुद्गल द्रव्यका नित्य तादात्म्य सम्बन्ध है । उक्त द्रव्योंकी और भी विशेषता दिखाने के लिये सूत्र करते हैं--
सूत्र-आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ५॥ भाष्यम्--आ आकाशाद् धर्मादीन्येकद्रव्याण्येव भवन्ति । पुद्गलजीवास्त्वनेकद्र. व्याणि इति ॥
अर्थ-पूर्वोक्त सूत्रमें धर्मादिक द्रव्य जो गिनाये हैं, उनमें से धर्मसे लेकर आकाश पर्यन्त धर्म अधर्म और आकाश ये तीन जो द्रव्य हैं, वे एक एक हैं । बाकीके पुद्गल और जीव अनेक द्रव्य हैं।
भावार्थ-धर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त होकर रहनेवाला एक है । जो लोककी बराबर असंख्यातप्रदेशी होकर भी अखण्ड है। उसकी समान जातिका-गतिमें सहकारी दूसरा कोई भी द्रव्य नहीं है । इसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी एक ही है । वह भी लोकमें व्याप्त होकर रहनेवाला एक ही अखण्ड द्रव्य है । उसकी भी समान जातिकास्थितिमें सहकारी और कोई दूसरा द्रव्य नहीं है। सामान्यसे आकाश एक अखण्ड अनन्त प्रदेशी है । विशेष अपेक्षासे उसके दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है, अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है । वास्तवमें ये दो भेद आकाशके उपचारसे हैं । आकाश एक अखण्ड द्रव्य ही है, और उसके समान भी अवगाहन देनेवाला दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। इस प्रकार ये तीनों द्रव्य एक एक ही हैं। किंतु जीव और पुद्गल द्रव्यमें यह बात नहीं है । जीव भी अनन्त हैं, और पुद्गल भी अनन्त हैं, तथा प्रत्येक जीव और प्रत्येक पुद्गलकी सत्ता स्वतन्त्र और भिन्न भिन्न है।
१-रूपादिगुणवत्ता अथवा मूर्ति (रूपादि चार गुणोंके समूहको मूर्ति कहते हैं । यह पुद्गलका सामान्य लक्षण है । लक्षण अपने लक्ष्यको छोड़कर कभी नहीं रह सकता । अन्यथा वह लक्षण ही नहीं माना जा सकता । पुद्गलमें चारों गुणोंका अस्तित्व किस तरह सिद्ध होता है, सो पहले बता चुके हैं । २–यहाँपर अनन्तसे मतलब अक्षयानन्तका है, क्योंकि जीव पुद्गल आकाश कालके समय आदि अक्षयानन्तराशिमें ही गिने गये हैं। अक्षयानन्तका लक्षण इस प्रकार है-सत्यपि व्ययसद्भाव, नवीनवृद्वेरभाववत्त्वंचेत् । यस्य क्षयो न नियतः, सोऽनन्तो जिनमते भणितः॥ जैन-सिद्धान्तमें अद्वैतादि मत-वालोंकी तरह एक ही जीव या उसको विभु नहीं माना है, और न अणुरूप ही माना है।
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