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सूत्र ४ ।।
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उपर्युक्त सूत्रमें नित्य अवस्थित और अरूप ऐसे तीन विशेषण दिये हैं, वे सामान्यतया पाँचों ही विशेष्यरूप द्रव्योंके सिद्ध होते हैं । परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है, अतएव सामान्य विधिके अपवादरूप कथनको करनेके लिये सूत्र करते हैं
सूत्र-रूपिणः पुद्गलाः॥४॥ भाष्यम्-पुद्गला एव रूपिणो भवन्ति । रूपमेषामस्त्येषु वास्तीति रूपिणः।
अर्थ-उक्त धर्मादिक पाँच द्रव्यों से एक पुद्गल द्रव्य ही ऐसे हैं, कि जो रूपी हैं । रूपी शब्दका अर्थ रूपवाला है । इस शब्दकी व्युत्पत्ति दो प्रकारसे बताई है-एक तो सम्बन्धकी अपेक्षासे दूसरी अधिकरणकी अपेक्षासे । सम्बन्धकी अपेक्षामें रूप और रूपवान्में कथंचित भेद दिखाया है, और अधिकरणकी विवक्षामें कथंचित् इनमें अभेद है, ऐसा अभिप्राय प्रकट किया है । क्योंकि जिनेन्द्रभगवान्के प्ररूपित तत्त्वएकान्तात्मक नहीं अनेकान्तरूप हैं,
और इसी लिये कदाचित् सम्बन्ध अथवा अधिकरण दोनोंमेंसे किसी भी अपेक्षामें दोनों अर्थ भी सङ्गत हो सकते हैं। क्योंकि रूपादि गुण द्रव्यसे भिन्न न कभी हुए न हैं, और न होंगे, और इनका भेद-व्यवहार लोकमें प्रसिद्ध ही है, जैसे कि आमका पीला रंग, पीले आमका मीठा रस, मीठे आमकी सुगन्ध, सुगन्धित आमका स्निग्ध स्पर्श इत्यादि।
___ भावार्थ-इस सत्रके द्वारा दो अर्थ व्यक्त होते हैं । एक तो धर्मादिकके साथ साथ पुद्गल भी अरूपी सिद्ध होते थे, उसकी निवृत्ति, दूसरा अनन्त पुद्गलोंके साथ रूपित्वका नित्यतादात्म्य । पहला अर्थ करते समय रूपिणः पुद्गला एव अर्थात् रूपी द्रव्य पद्ल ही हैं, अन्य नहीं ऐसा अवधारणरूप अर्थ करना चाहिये। दूसरा अर्थ करते समय पुद्गला रूपिण एव अर्थात् सब पुद्गल रूपी ही हैं, ऐसा अवधारण करना चाहिये । क्योंकि वैशेषिकादि मत-वालोंने रूपादि रहित भी पुद्गल माने हैं। उसके निराकरणके लिये ऐसा अवधारण आवश्यक है। वास्तवमें कोई भी पुद्गल ऐसा नहीं है, जो कि रूप रस गन्ध स्पर्श युक्त न हो, सभीमें चारों गुण पाये जाते हैं । यह दूसरी बात है, कि किसी कोई गुण व्यक्त हो, किसीमें अव्यक्त ।
. १-उत्पत्ति क्षणे द्रव्यं क्षणं निर्गुणं निष्क्रियं च तिष्ठति, ऐसा उनका सिद्धान्त है । तथा उन्होंने पथ्वीमें चारों गुण, जलमें तीन गुण, अनिमें दो गुण, और वायुमें एक ही गुण माना है । पृथिवी आदिके परमाणु भी भिन्न भिन्न ही माने हैं । २-जिनमें जो गुण दिखाई नहीं पड़ता, उसके अस्तित्वका ज्ञान अनुमान द्वारा उसमें हो जाता है। जैसे कि वायुः रूपवान् स्पर्शवत्त्वात् घटादिवत् । अतएव प्रत्येक पुद्गलमें रूप रस गंध स्पर्श चारों ही गुण मानने चाहिये। ३-यदि यह बात नहीं मानी जायगी, और एक गुणवाली दो गुणवाली तीन गुणवाली द्रव्य भी यदि मानी जायगी, तो प्रत्यक्ष विरोध भी आवेगा। देखा जाता है, कि वायुसे जलकी उत्पत्ति होती हैं, जलसे मोती आदि पृथ्वीकी और पृथ्वीसे अग्निकी उत्पत्ति होती है। वायु आदिकमें जो गुण नहीं होंगे, वे जलादिक कार्यद्रव्यमें कैसे आसकते हैं । क्योंकि यह सिद्धान्त है कि “ कारणगुणाः कार्यगुणानारभन्ते।"
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