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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ पञ्चमोऽध्यायः चार और जीव इनमेंसे कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है, कि जो अपने स्वरूपको छोड़ देता हो। धर्म द्रव्य अधर्मादिकरूप नहीं हो सकता, अधर्म द्रव्य धर्मादिकरूप नहीं हो सकता, इसी तरह आकाश शेष धर्मादिरूप नहीं हो सकता, न पुद्गल शेष द्रव्यरूप हो सकता है, और न जीवद्रव्य ही शेष द्रव्यरूप हो सकता है। प्रत्येक द्रव्य अपने अपने स्वरूपको कायम रखता है-कोई भी द्रव्य कभी भी सर्वथा नष्ट नहीं होता, अतएव इस कथनसे पहले प्रश्नका उत्तर हो जाता है । द्रव्यास्तिक नयको प्रधानतया लक्ष्यमें रखकर आचार्यने नित्य शब्दके द्वारा वस्तुके ध्रौव्य अंशका प्रतिपादन किया है । अतएव एकान्तवादरूप नित्यत्व नहीं समझना चाहिये। द्रव्योंके समान उनके गुण भी नित्य हैं, वे भी सर्वथा नष्ट नहीं हुआ करते हैं। क्योंकि मुख्यतया द्रव्योंका और गौणतया द्रव्योंके आश्रित रहनेवाले गुणोंका अस्तित्व ध्रुव है। दूसरे प्रश्नका उत्तर अवस्थित शब्दके द्वारा दिया है। अर्थात् द्रव्योंकी संख्या अवस्थित है । वह न कभी कम होती है और न अधिक । क्योंकि सभी द्रव्य अनादिनिधन हैं, और उनका परिणमन परस्परमें कभी भी एकका दूसरे रूप नहीं हुआ करता । सभी द्रव्य लोकमें अवस्थित रहकर परस्परमें सम्बन्ध रहते हैं। सम्बद्ध होनेपर भी कोई भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणत नहीं होता, और न दूसरे द्रव्यको अपने रूप ही परिणमाता है । अतएव अस्तिकायोंकी पाँच संख्या अवस्थित है। तीसरे प्रश्नका उत्तर अरूप शब्दके द्वारा दिया है। यह विशेषण वास्तवमें धर्म अधर्म आकाश और जीव इन चारका ही है, पुद्गलका नहीं है। यही कारण है, कि अग्रिम सूत्रके द्वारा धर्मादिककी रूपवत्ताका निषेध किया जायौँ । यहाँपर रूप शब्दका अर्थ मूर्ति है । रूप रस गन्ध स्पर्श इन गुणोंको और इन गुणोंसे युक्त द्रव्यको भी मूर्ति कहते हैं। १-काल द्रव्यका आगे चलकर वर्णन करेंगे, अतएव उसका यहाँपर ग्रहण नहीं किया है । कालको सम्मिलित करनेसे छह द्रव्य होते हैं । इस अपेक्षासे छहों द्रव्योंके विषयमें यह नियम समझना चाहिये । २-" नेध्रुवे त्यप्" (सिद्ध० अ० ६ पा० ३ सूत्र १७) इति नित्यानि ध्रुवाणीत्यर्थः । ३ कालको साथ गिननेसे छह द्रव्य हैं । कोई कोई नित्यावस्थित ऐसा एक ही शब्द रखकर और नित्य शब्दको अवस्थितका विशेषण मानकर उसका अर्थ ऐसा करते हैं, कि जैसे किसीसे कहा जाय, कि यह मनुष्य नित्य प्रजाल्पित है, उसका अर्थ यह होता है, कि यह प्रायः बोलता ही रहता है, इसी प्रकार नित्यावस्थित शब्दका भी यही अर्थ है, कि ये द्रव्य नित्य अवस्थित रहते हैं । अर्थात् नित्य शब्दका अर्थ आभीक्ष्ण्य है। परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है। ऐसा माननेपर भाष्यकी संगति नहीं होती। ४-रूपिणः पुद्गलाः इस सूत्रके द्वारा । इसके अर्थकी निषेधपरता आगे मालूम होगी। विना विधिके निषेध नहीं हो सकता, अतएव यहाँपर पाँचों ही द्रव्योंका अरूपाणि ऐसा विशेषण दिया है। कोई कोई अरूपीणि ऐसा पाठ करते हैं, और कोई कोई इन् प्रत्यय न करके मत्वर्थीय मतुप् प्रत्ययको मानते हैं। ५-" गुणा रूपादयः पुंसि गुणि लिंङ्गास्तु तद्वति ।" कोई कोई यहाँपर रूप शब्दसे केवल रूप को ही लेते हैं, सो ठीक नहीं है, क्योंकि चारों गुणोंका साहचर्य है । इनमेंसे कोई भी एक गुण शेष तीन गुणोंको छोड़कर नहीं रह सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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