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कारिका: । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
पूर्वक और ऐसी करो, जोकि पुण्यबंधका ही कारण हो तथा हिंसादिक दोषोंसे रहित हो, एवं निन्द्य अथवा गर्ह्य न हो ।
प्रवृत्ति' करनेवाले मनुष्यों और उनकी प्रवृत्तियोंकीं जघन्य मध्यमोत्तमता बताते हुए प्रशस्त प्रवृत्ति करनेकी तरफ लक्ष्य दिलानेके लिये उसके न करनेवालेकी अधमता और करनेवालेकी उत्तमता बताते हैं ।
कर्माहितमिह चामुत्र चाधमतमो नरः समारभते । इह फलमेव त्वधमो विमध्यमस्तूभयफलार्थम् ॥ ४ ॥ परलोकहितायैव प्रवर्तते मध्यमः क्रियासु सदा । मोक्षायैव तु घटते विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः ॥ ५ ॥ यस्तु कृतार्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्मं परेभ्य उपदिशति । नित्यं स उत्तमेभ्योऽप्युत्तम इति पूज्यतम एव ॥ ६ ॥
अर्थ - मनुष्य तीन प्रकार के समझने चाहिये - उत्तम, मध्यम, अधम । इनमें से उत्तम और अधमके इसी प्रकार तीन तीन भेद और भी समझने चाहिये । जो अधमाधम अधमोंमें भी अधम दर्जे के हैं, वे ऐसे कर्मका आरम्भ किया करते हैं, जो कि आत्माके लिये इहलोक और परलोक दोनों ही भव में अहितकर - दुःखका कारण हो । जो अधमोंमें मध्यम दर्जे के हैं, वे ऐसा कार्य किया करते हैं, कि जो इसी भवमें सुखरूप फलको देनेवाला हो । जो अधमोंमें उत्तम दर्जे के हैं, वे ऐसा "कार्य पसंद करते हैं, कि जो इस भवमें और परभवमें दोनों ही जगह सुखरूप उत्तम फलको दे सके । मध्यम दर्जेके मनुष्य सदा ऐसी क्रियाओंके करनेमें ही प्रवृत्त हुआ करते हैं, कि जो परलोकमें हित कर हों। किंतु उस विशिष्टमतिको उत्तम पुरुष समझना चाहिये, कि जो मोक्षको सिद्ध करने के लिये ही सदा चेष्टा किया करता है । तथा जो इस प्रकारकी करके कृतार्थ - कृतकृत्य हो जाता है, वह उत्तमोंमें मध्यम दर्जेका समझना चाहिये । और प्रशस्त धर्मको पाकर स्वयं कृतकृत्य होकर भी जो दूसरोंके लिये भी उस धर्मका उपदेश दे है, वह उत्तमोंमें भी उत्तम है और पज्योंमें भी निरंतर सर्वोत्कृष्ट पूज्य समझना चाहिये ।
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अपनी चेष्टाको सिद्ध
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भावार्थ:- मोक्ष के लिये ही प्रवृत्ति करना उत्तम पक्ष, परलोकमें हितकर - पुण्यरूप कार्य करना मध्यम पक्ष, और इस लोक में भी सुखरूपताकी अपेक्षा रखकर कार्य करना जघन्य पक्ष है । जो दोनों भक्के लिये अहितकर कार्य करते हैं वे सर्वथा अधम हैं । इसी प्रकार जो स्वयं अनंतज्ञानादिको प्राप्त करके दूसरोंके लिये भी उसके उपायका उपदेश देते हैं, उत्तम में सर्वोत्कृष्ट हैं । अतएव जहाँतक हो, मोक्षके लिये ही प्रवृत्ति करना चाहिये, और यदि वह न बन सके, तो निर्दोष पुण्यरूप कर्म करना ही उचित है । उत्तमोत्तम पुरुष कौन है, सो बताते हैं
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