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, रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम
[सम्बंधतस्मादहति पूजामर्हनेवोत्तमोत्तमो लोके ।
देवर्षिनरेन्द्रेभ्यः पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वानाम् ॥ ७ ॥ अर्थ--उत्तमोत्तमका जो स्वरूप ऊपर बताया है, कि स्वयं कृतकृत्य होकर दूसरोंको भी उसके कारणभूत उत्तम धर्मका नित्य उपदेश देनेवाला और सर्वोत्कृष्ट पूज्य, सो यह स्वरूप एक अरहंतमें ही घटित होता है। अतएव जगत्में उन्हींको उत्तमोत्तम समझना चाहिये, क्योंकि संसारके अन्य प्राणी जिनकी पूजा किया करते हैं, उन देवों ऋषियों और नरेन्द्रोंचक्रवर्ती आदिकोंके द्वारा भी वे पूज्य हैं । वे देवेन्द्र मुनीन्द्र नरेन्द्र आदि संसारके सभी इन्द्रोंके द्वारा पूजाको प्राप्त होते हैं । अरहंतदेवकी पूजाका फल और उसकी आवश्यकता बताते हैं।
अभ्यर्चनादर्हतां मनः प्रसादस्ततः समाधिश्च ।
तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् ॥ ८ ॥ अर्थ-अरहंतदेवका पूजन करनेसे राग द्वेष आदि मानसिक दुर्भाव दूर होकर चित्त निर्मल बनता है, और मनके प्रसन्न-निर्विकार होनेसे समाधि-ध्यानकी एकाग्रता सिद्ध होती है । ध्यानके स्थिर हो जानेसे कर्मोंकी निर्जरा होकर निर्वाण-पदकी प्राप्ति होती है । अत. एव मुमुक्षुओंको अरहंतका पूजन करना न्यायप्राप्त है ।
भावार्थ--जो मुमुक्षु गृहस्थ हैं-मोक्षमार्ग-मुनिधर्मका पालन करनेमें असमर्थ होनेके कारण आरम्भमें प्रवृत्ति करनेवाले हैं, उनके लिये निर्दोष पुण्यबंधकी कारण क्रिया करनेका ऊपर उपदेश दिया था। वह क्रिया कौनसी है, सो ही इस श्लोकमें बताई है, कि ऐसी क्रिया अरहंतदेवकी पूजन करना हो सकती है, क्योंकि उनका पूजन करनेसे उनके पवित्र गुणोंका स्मरण होता है, जिससे परिणामोंकी कष्मलता दूर होती है, और उससे मन निर्विकार होकर समाधिकी सिद्धि होती है । तथा इसी तरह परम्परया पुनीत परमपदकी प्राप्ति होती है।
ऊपर यह बात बताई गई है, कि अरहंतदेव दूसरोंको भी उत्तम धर्म-मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं । सो यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि जब वे कृतकृत्य हैं-उन्हें अब कुछ भी करनेकी इच्छा बाकी नहीं रहीं है, तो वे उपदेश भी किस कारणसे देते हैं ? अतएव इस शंकाका परिहार करते हैं।
१--तिथंच मनुष्य देव इन तीनों गतियोंके मिलाकर १०० इन्द्र होते हैं । भवनवासी देवोंके ४०, व्यन्तरोंके ३२, कल्पवासियोंके २४, ज्योतिषियों के २, मनुष्य तिर्यंचोंका १-१, अरहंत इन सौ इन्द्रोंके द्वारा बन्ध होते हैं । यथा-इंदसदबंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं । अंतातीतगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं ॥
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