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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ सम्बंध जन्मनि कर्मक्लेशैरनुबद्धेऽस्मिंस्तथा प्रयतितव्यम् । कर्मक्लेशाभावो यथा भवत्येष परमार्थः ॥ २ ॥ अर्थ-यह जन्म जिन क्लेशोंसे पूर्ण है, वे कर्मोदयसे प्राप्त हुआ करते हैं, तथा वे कर्म भी संक्लिष्ट परिणामोंके द्वारा ही प्राप्त हुए थे और उन कर्मोका उदय आनेपर होनेवाले संक्लिष्ट परिणामोंके द्वारा यह जीव नवीन जन्मका कारणभत कर्मोंका फिर भी संग्रह कर लेता है । इस प्रकारसे यह जन्म कर्म-क्लेशोंसे अनुबद्ध हो रहा है । अतएव इस अनुबन्ध परम्पराका सर्वथा नाश करनेके लिये ऐसे प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है, कि जिससे परमार्थ-परमनिःश्रेयस मोक्षकी सिद्धि हो। क्योंकि कर्मक्लेशोंसे अपरामृष्ट अवस्था ही वस्तुतः सुख स्वरूप है, और इसी लिये उसका प्राप्त करना ही मनुष्यका अन्तिम और वास्तविक साध्य है। यद्यपि अभीष्ट अविनश्वर सुखको प्राप्त करनेके लिये मनुष्यको उस अवस्थाके प्राप्त करनेका ही प्रयत्न करना चाहिये; किन्तु उसके लिये प्रयत्न करनेवाले व्यक्ति कितने मिलेंगे ? बहुत कम । अतएव जो उसके लिये सर्वथा प्रयत्न नहीं कर सकते उनको क्या करना चाहिये सो बताते हैं परमार्थालाभे वा दोषेष्वारम्भकस्वभावेषु । कुशलानुबन्धमेव स्यादनवद्यं यथा कर्म ॥ ३ ॥ अर्थ-परम अर्थ-मोक्ष पुरुषार्थका यदि लाभ न हो सके, तो जन्म मरणके कारणभूत कर्मोंका जिनसे संग्रह होता है, ऐसे दोषरूप कार्योंका आरम्भ होना स्वाभाविक है। अतएव उनके लिये प्रयत्न करना चाहिये । किन्तु इस प्रकारका प्रयत्न करनेमें वही कर्म करना चाहिये जोकि अनवद्य हो–हिंसादिक दोषोंसे रहित तथा अनिंद्य हो और पुण्यकर्मका ही बन्ध करानेवाला हो । भावार्थ--मोक्ष पुरुषार्थको सिद्ध करनेके लिये सर्वथा आरम्भ रहित निदोष प्रवृत्ति ही करनी पड़ती है, जोकि पूर्ण निग्रंथ मनियोंके द्वारा ही साध्य है। जो इस प्रकारकी प्रवृत्ति करनेमें असमर्थ हैं, उन्हें देशसंयमी होना चाहिये । मुनियोंकी प्रवृत्ति निर्जरा-संचित कर्मोंके क्षयका कारण है । किंतु देशसंयमीकी प्रवृत्ति सर्वथा निरारम्भ न हो सकनेके कारण आरम्भ सहित ही हो सकती है, और वैसी ही होती है । अतएव इस प्रकारके व्यक्तियों के लिये ही कहा गया है, कि यदि परमनिःश्रेयस अवस्थाकी साधक सर्वथा निरारम्भ और निर्दोष प्रवृत्ति तुम नहीं कर सकते और दोषरूप आरम्भ प्रवृत्ति ही तुमको करना है, तो वह यत्नाचार १-इस अवस्थाके प्राप्त करनेवाले आत्माको ही ईश्वर कहते हैं । अतएव पातञ्जल योगदर्शनमें " क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ” ऐसा माना है। किंतु यह सिद्धान्त ऐकान्तिक होनेसे मिथ्या है। क्योंकि उन्होंने पुरुष-जीवको ज्ञानस्वरूप अथवा सुखस्वरूप नहीं माना है । जैनसिद्धान्तमें जीवको ज्ञानस्वरूप व सुखस्वरूप मानकर भी क्लेशकर्मविपाकाशयसे अपरामृष्ट अवस्थाका धारक माना है, सो निर्दोष होनेसे सत्य और उपादेय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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