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________________ AGO FORIOSAN रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला. श्रीमदुमाखातिविरचितं सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । हिन्दीभाषानुवादसहितम् । --000 सम्बन्धकारिकाः आचार्योंने कृतज्ञता आदि प्रकट करनेके लिये ग्रंथकी आदिमें मङ्गलाचरण करना आस्तिकोंके लिये आवश्यक माना है, अतएव यहाँपर भी आचार्यउमास्वातिवाचक वस्तु निर्देशात्मक मंगलको करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकी भाष्यरूप टीका करनेके पूर्व इस ग्रंथकी उत्पत्ति आदिका सम्बन्ध दिखानेवाली कारिकाओंको लिखते हैं । सम्यग्दर्शनशुद्धं यो ज्ञानं विरतिमेव चामोति । दुःखनिमित्तमपीदं तेन सुलब्धं भवति जन्म ॥१॥ अर्थ-कोई भी मनुष्य यदि इस प्रकारके ज्ञान और वैराग्यको नियमसे प्राप्त कर लेता है, जोकि सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है तो, यद्यपि संसारमें जन्म धारण करना दुःखका ही कारण है, फिर भी उसका जन्म धारण करना सार्थक अथवा सुखकर ही समझना चाहिये । भावार्थ-संसार जम-. मरण रूप है, और इसी लिये वह दुःखोंका घर है। किंतु सभी प्राणी दुःखोंसे छूटना या सुखको प्राप्त करना चाहते हैं । परन्तु दुःखोंसे छुटकारा या सुखकी प्राप्ति तबतक नहीं हो सकती, जबतक जीव संसार शरीर और भोग इन तीनों विषयोंसे ज्ञानपूर्वक वैराग्यको प्राप्त न हो जाय । साथ ही यह बात भी ध्यानमें रखनी चाहिये, कि ज्ञान और वैराग्य भी शुद्ध वही माना जा सकता या वस्तुतः वही कार्यकारी हो सकता है, जोकि सम्यग्दर्शनसे युक्त हो। अतएव यद्यपि जन्म ग्रहण करना अथवा संसार दुःखरूप या दुःखोंका ही निमित्त है, फिर भी उनके लिये वह समीचीन या सुखका ही कारण हो जाता है, जोकि उसको धारण करके इस रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको धारण किया करते हैं।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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