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सूत्र १ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
पञ्चमोऽध्यायः ।
तत्त्वोंका नामनिर्देश करते समय ग्रन्थकी आदिमें सात तत्त्व गिनाये थे, उनमें सबसे पहला जीव तत्त्व था। गत चार अध्यायोंमें निर्देश स्वामित्वादि अनुयोगोंके द्वारा तथा लक्षण विधानादिके द्वारा उसका वर्णन किया। अब उसके अनन्तर क्रमानुसार अजीव तत्त्वका वर्णन होना चाहिये । अतएव इस अध्यायमें उसीका वर्णन करेंगे । इसी आशयको भाष्यकार प्रकट करते हैं-
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भाष्यम् - उक्ता जीवाः, अजीवान् वक्ष्यामः ।
अर्थ — जीव तत्त्वका वर्णन गत चार अध्यायोंमें किया जा चुका है । अब उसके अनन्तर यहाँ पर अजीव तत्त्वका वर्णन करेंगे ।
भावार्थ — जो तीनों कालमें द्रव्य प्राण और भाव प्राणोंको धारण करता है, उसको जीव कहते हैं । उसके चार गतियोंकी अपेक्षासे चार भेद हैं । उसका लक्षण दोनों प्रकारका साकार और अनाकार उपयोग है । इत्यादि विषयों की अपेक्षा जीव तत्त्वका वर्णन सामान्यतया पूर्ण हुआ । उसके अनन्तर निर्दिष्ट अजीव तत्त्व है । कालको साथ लेकर गिननेसे अजीव द्रव्यके पाँच भेद होते हैं । इनके विषय में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार इन अजीव द्रव्योंके वर्णनका अवसर प्राप्त है । उनमें से एक काल द्रव्यको छोड़ कर शेष चार धर्मादिक द्रव्योंके स्वरूप और भेदोंको बतानेके लिये सूत्र करते हैं । —
सूत्र - अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥ १ ॥
भाष्यम् - धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकायः पुद्गलास्तिकाय इत्यजवि - कायाः । तान् लक्षणतः परस्ताद्वक्ष्यामः । कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थ च ॥
अर्थ — धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ये अजीव काय हैं । इनका लक्षण आगे चलकर लिखेंगे । यहाँ पर काय शब्दका ग्रहण जो किया है, सो प्रदेश और अवयवोंका बहुत्व दिखानेके लिये, अथवा अद्धारूप समयका निषेध दिखाने के लिये है ।
भावार्थ – अजीव द्रव्य पाँच हैं-धर्म अधर्म आकाश पुद्गल और काल । पाँचों ही द्रव्य अस्तिरूप - सत् हैं । अतएव उनके साथ अस्ति शब्दका प्रयोग किया जाता है । दूसरी बात
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१ - - जीवति जीविष्यति अजीवीत् इति जीवः । द्रव्य प्राण १० हैं -५ इन्द्रिय ३ योग १ आयु १ श्वासोच्छ्रास | भाव प्राण चेतनारूप है, संसारी जीवोंके दोनों ही प्राण पाये जाते हैं । सिद्धोंके एक भावप्राण ही रहता है । २नारकी तिर्येच मनुष्य और देव । ३-जीवके अनन्तर अजीव द्रव्यका और उसमें धर्मादिक ४ का काल द्रव्यके साथ साथ वर्णन आगे करेंगे, ऐसी आचार्यने प्रथम प्रतिज्ञा की थी, तदनुसार । ४ – यह अस्ति क्रिया - अस् धातुके लट् लकारका प्रयोग नहीं है, किन्तु अव्यय है ।
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