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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ पञ्चमोऽध्यायः यह है, कि धर्मादिक चार द्रव्योंके प्रदेश बहुत हैं, और काल द्रव्यमें यह बात नहीं है, वह एक प्रदेशी ही है, अतएव काय शब्दके द्वारा उसका भेद दिखाया है, यहाँपर काय शब्दका अर्थ प्रदेश और अवयवोंका बहुत्व विवक्षित है । अतएव धर्मादिक चार द्रव्योंमें यह अर्थ घटित होता है, और काल द्रव्यमें घटित नहीं होता, इस बातको दिखानेके लिये ही काय शब्दका प्रयोग किया है ।
धर्मादिक पाँचो ही द्रव्य अजीव भी हैं। क्योंकि उनमें जीवत्व-चैतन्य नहीं पाया जाता । जीवसे सर्वथा विरुद्ध अथवा जीवका सर्वथा अभाव ऐसा अजीव शब्दका अर्थ यहाँपर अभीष्ट नहीं है, किन्तु ये द्रव्य जीवरूप नहीं है, इतना ही अर्थ अभीष्ट है ।
__इस कथनसे धर्मादिक चार द्रव्योंमें अजीवत्व और कायत्व दोनों ही धर्म पाये जाते हैं, अतएव उनके लिये अजीव काय शब्दका प्रयोग किया है, क्योंकि ये अजीव भी हैं, और काय भी हैं । अर्थात् अजीव काय शब्दमें कर्मधारय समास माना है। कर्मधारय समास जिन पदोंमें हुआ करता है, उनकी वृत्ति परस्पर एक दूसरेको छोड़कर भी रहा करती है । जैसे कि " नीलोत्पल " । नील और उत्पल शब्दका कर्मधारय समास है, अतएव इन दोनों शब्दोंकी परस्परमें एक दूसरेको छोड़कर भी वृत्ति पाई जाती है । नीलको छोड़कर उत्पल शब्द रक्तोत्पल आदिमें भी रहता है, और उत्पल शब्दको छोड़कर नील शब्द वस्त्रादिकके साथ भी पाया जाता है । इसी प्रकार अजीव काय शब्दके विषयमें समझना चाहिये । अजीव शब्दको छोडकर काय शब्दकी वृत्ति जीवमें पाई जाती है, और कायको छोडकर अजीव शब्दकी वृत्ति काल द्रव्यमें भी पाई जाती है ।
धर्म और अधर्म शब्दसे पुण्य पापको अथवा वैशेषिकादिकोंके माने हुए गुण विशेषको
१-काय शब्दकी निरुक्ति इस प्रकार है-चीयते इति कायः । काय शब्दसे शरीरावयवीका ग्रहण होता है, उसीके उपमा सादृश्यकी अपेक्षासे जिसमें बहुतसे अवयव या प्रदेश पाये जाते हैं, उनको भी काय शब्दके द्वारा ही कह दिया जाता है, अतएव धर्मादिक और पुद्गलके साथ काय शब्दका प्रयोग किया गया है।
२-प्रतिषेध दो प्रकारका हुआ करता है-प्रसज्य और पर्युदास । इनका लक्षण इस प्रकार है-" प्रतिषेधोऽर्थनिविष्ट, एक वाक्यं विधेः परः । तद्वानस्वपदोक्तश्च पर्युदासोऽन्यथेतरः ॥” अर्थात् जिसमें सर्वथा निषेध पाया. जाय, उसको प्रसज्य और जिसमें सदृश पदार्थका ग्रहण हो, उसको पर्युदास कहते हैं । अस्तित्वादि गुणोंकी अपेक्षा जीव द्रव्य और धर्मादिक अजीव द्रव्योंमें सादृश्य पाया जाता है।
कोई कोई कहते हैं, कि जीवनामकर्मके उदयसे प्राणोंका धारण हुआ करता है । यहाँपर अजीव शब्दसे उस जीवनाम कर्मका ही निषेध अभीष्ट है । परन्तु यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि आगममें कोई भी जीवनामकर्म नहीं माना है । इसके सिवाय एक दोष यह भी आवेगा, कि यदि जिनके जीवनामकर्मका उदय नहीं है, वे अजीव हैं, ऐसा अर्थ माना जाय, तो सिद्ध भी अजीव ठहरेंगे,
३-अजीवाश्च ते कायाश्च । ४-राहोःशिरः शिलापुत्रकस्य शरीरम् , की तरह अभेदमें षष्टी माननेसे षष्टीतत्पुरुष समास भी हो सकता है । यथा-अजीवानां कायाः अजीरकायाः इति । ५-बहुप्रदेशी होनेसे जीव काय तो है, और इसी लिये पंचास्तिकायमें वह परिगणित है, परन्तु अजीव नहीं है, और काल द्रव्य काय नहीं है, अजीव है।
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