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________________ २३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः सूत्र-प्राग्ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २४ ॥ भाष्यम्-प्राग्वेयकेभ्यः कल्पा भवन्ति सौधर्मादय आरणाच्युतपर्यन्ता इत्यर्थः। अतोऽन्ये कल्पातीताः। - अर्थ-वेयकोंसे पहले पहलेके जो विमान हैं, उनको कल्प कहते हैं । अर्थात् सौधर्म स्वर्गसे लेकर आरण अच्युत पर्यन्त जितने विमान हैं, उन सबकी कल्प संज्ञा है। अतएव इनसे जो शेष बचते हैं-अर्थात् अवेयक और पाँच अनुत्तर विमानोंको कल्पातीत कहते हैं। जो कल्पोंमें उपपाद--जन्म ग्रहण करते हैं, उनको कल्पोपपन्न और जो ग्रैवेयकादिकोंमें उपपन्न होते हैं, उनको कल्पातीत कहते हैं। अच्युतपर्यन्त को कल्प कहनेका कारण वहाँपर इन्द्र आदिक दश प्रकारके देवोंकी कल्पनाका होना है, यह बात पहले बता चुके हैं। भाष्यम्-अत्राह-किं देवाः सर्व एव सम्यग्दृष्टयो यद्भगवतां परमर्षीणामहतांजन्मादिषु प्रमुदिता भवन्ति इति । अत्रोच्यते-न सर्वे सम्यग्दृष्टयः किन्तु सम्यग्दृष्टयः सद्धर्मबहुमानादेव तत्र प्रमुदिता भवन्त्यभिगच्छन्ति च । मिथ्यादृष्टयोऽपि च लोकचित्तानुरोधादिन्द्रानुवृत्त्या परस्परदर्शनात् पूर्वानुचरितमिति च प्रमोदं भजन्तेऽभिगच्छन्ति च । लोकान्तिकास्तु सर्व एव विशुद्धभावाः सद्धर्मबहुमानासंसारदुःखार्तानां च सत्त्वानामनुकम्पया भगवतां परमर्षीणामहतां जन्मादिषु विशेषतः प्रमुदिता भवन्ति । अभिनिःक्रमणाय च कृतसंकल्पान्भगवतोऽभिगम्य प्रहृष्टमनसः स्तुवन्ति सभाजयन्ति चेति ॥ _ अर्थ-प्रश्न-क्या सभी देव सम्यग्दृष्टि हैं, कि जो परमर्षि भगवान् अरहंतदेवके जन्मादिक कल्याणोंके समय प्रमुदित हुआ करते हैं ? उत्तर-नहीं, सभी देव सम्यग्दृष्टि नहीं हैं। किन्तु जो सस्यग्दृष्टि हैं, वे तो सद्धर्मके बहुमानसे ही प्रमुदित होते हैं, और उनके पादमूलमें आकर स्तुति आदिमें प्रवृत्त हुआ करते हैं । जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे भी उस कार्यमें प्रवृत्त तो होते हैं, परन्तु सद्धर्मके बहुमानसे प्रवृत्त नहीं हुआ करते, किन्तु लोगोंके चित्तके अनुरोधसे अथवा इन्द्रका अनुवर्तन करनेके लिये यद्वा आपसकी देखा देखी, या हमारे पूर्वज. इस कामको करते आये हैं, अतएव हमको भी करना चाहिये, ऐसी समझसे प्रमोदको प्राप्त होते हैं, और भगवान् अरहंत देवका अभिगमन करते हैं। लौकान्तिक देव जो बताये हैं, वे सभी विशुद्ध भावोंको धारण करनेवाले-सम्यग्दृष्टि हैं । वे सद्धर्मके बहुमानसे अथवा संसार दुःखोंसे आर्त-पीडित-प्राणियोंके ऊपर दया करके-सदय परिणामोंके कारण परमर्षि भगवान् अरहंतदेवके जन्मादि कल्याणोंके समय विशेषरूपसे प्रमुदित हुआ करते हैं, और जिस समय भगवान् अभिनिःक्रमण-तपस्या या दीक्षा धारण करनेके लिये संकल्प करते हैं, उस समय वे भगवान्के निकट आते हैं, और अत्यंत हर्षित चित्तसे उनकी स्तुति करते हैं, तथा उन्हें वैसा करनेके लिये प्रेरित करते हैं। भावार्थ-लौकान्तिक देव सम्यग्दृष्टि होते हैं । इसी लिये वे भगवान् अहंतदेवके जन्म नेपर या दीक्षाका विचार करनेपर विशेषरूपसे हर्षित होते हैं, और उनके निकट आकर उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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