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________________ सूत्र २३ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२९ चाहिये । यहाँपर जो लेश्याका नियम बताया है, वह ऊपरके वैमानिक देवों के विषय में कमसे घटित कर लेना चाहिये, अर्थात् सौधर्मादिक कल्पोंमें से दो तान और शेष कल्पोंमें क्रमसे ऊपर ऊपरके वैमानिक देवोंको पीत पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या वाला समझना । सौधर्म और ऐशान इन दो कल्पोंमें तो पीतलेश्या है । इसके ऊपर सानत्कुमार माहेन्द्र और ब्रह्मलोक इन तीन कल्पोंमें पद्मलेश्या है । बाकीके अर्थात् लान्तकसे लेकर सर्वार्थसिद्धपर्यन्त वैमानिकोंकी शुक्ल लेश्या है । इनमें भी विशुद्ध विशुद्धतर और विशुद्धतमका ऊपरका क्रम जैसा कि पहले बता चुके हैं, यहाँपर भी समझ लेना चाहिये । 1 भावार्थ — यहाँपर कल्पोंकी लेश्याओंका जो वर्णन है, वह सामान्य है । सूक्ष्म अंशकी अपेक्षासे वर्णन नहीं है । अतएव इस नियमको लक्ष्य में रखकर ऊपर के देवों में नीचे के देवोंकी अपेक्षा लेश्याकी अधिक विशुद्धि समझनी चाहिये । जैसे कि सौधर्म और ऐशान दोनों में ही पीत लेश्या बताई है, परन्तु सौधर्मकी अपेक्षा ऐशानमें पीतलेश्या की विशुद्धि अधिक है । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये । 1 I भावार्थ — यहाँपर भी लेश्यासे द्रव्यलेश्याका ही ग्रहण अभीष्ट है । क्योंकि भाव - लेश्या अध्यवसायरूप हैं, अतएव वे छहों ही वैमानिक देवोंमें पाई जाती हैं । यहाँपर जो लेश्याओंका नियम है, वह भावलेश्याओंके विषयमें है, ऐसा किसी किसीका कहना है, परन्तु टीकाकार को यह बात इष्ट नहीं है । दूसरी बात यह है, कि पहले तीन निकार्योंकी लेश्याका वर्णन कर चुके हैं, यहाँपर वैमानिकोंकी लेश्याका वर्णन किया है, यदि दोनों वर्णनों को एक साथ कर दिया जाता, तो ठीक होता, ऐसी किसी किसीको शंका हो सकती है, परन्तु वह भी ठीक नहीं है । क्योंकि वैसा करनेमें व्यतिकर दोष उपस्थित होता है, और ऐसा करने से सुखपूर्वक विषयका ज्ञान हो जाता है । पीत लेश्यावाले सौधर्म और ऐशान कल्पके देव सुवर्ण वर्ण हैं, सानत्कुमार माहेन्द्र और ब्रह्मलेाकके देवोंके शरीर की कान्ति पद्म कमलके समान है, लान्तक से लेकर सर्वार्थसिद्धतक के देवोंके शरीरकी प्रभा धवलवर्ण है । 1 भाष्यम् – अत्राह उक्तं भवता द्विविधा वैमानिका देवाः कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्चेति । तत् के कल्पा इति । अत्रोच्यते- - अर्थ —— आपने वैमानिक देवोंके पहले दो भेद बताये थे - एक कल्पोपपन्न दूसरे कल्पातीत । इनमेंसे किसीका भी अर्थ तबतक अच्छी तरह समझ में नहीं आ सकता, जबतक कि कल्प शब्दका अभिप्राय न मालूम हो । किन्तु कल्प शब्दका अर्थ अभीतक सूत्र द्वारा अनुक्त है । अतएव कहिये कि कल्प किसको कहते हैं ? इसका उत्तर देने के लिये सूत्र द्वारा कल्प शब्द का अर्थ बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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