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________________ २२८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः विभूति प्रकट हुई है, तो उनमेंसे कितने ही देव संवेगको प्राप्त होते हैं, और समीचीन धर्मको बहुमान - अत्यन्त सम्मान देने के लिये स्वर्ग से मर्त्यलोक में आकर भगवान् अरिहंतदेव के चरणों के मूलमें उपस्थित होकर उनकी स्तुति वन्दैना और उपासना में प्रवृत्त होकर तथा हितोपदेशको श्रवण करके आत्म-कल्याणको प्राप्त हुआ करते हैं। कोई कोई देव मर्त्यलोक में नहीं आते, वे अपने अपने स्थानपर ही रहकर खड़े होकर अञ्जलि-हाथ जोड़कर अत्यन्त नम्र होकर नमस्कार करके और भेंट पूजाका द्रव्य चढ़ाकर परम संवेगको प्राप्त हुए समीचीन धर्मके अनुरागसे जिनके नेत्र और मुख खिल रहे हैं, वहींसे भगवान्का पूजन करते हैं । भावार्थ — ऊपर ऊपरके देवोंकी गति आदि कम कम जो बताई है, उसके अनुसार वे देव प्रायः मर्त्यलोक में नहीं आते । कभी आते भी हैं, तो पुण्यकर्मके उदयसे अथवा अनादि पारणामिक स्वभावके वश पंच कल्याणोंके अवसरपर ही आते हैं । कोई कोई देव उन अवसरों पर भी नहीं आते । न आनेका कारण अभिमान नहीं है, क्योंकि अभिमान तो ऊपर ऊपर कम कम होता गया है; किन्तु न आनेका कारण संवेगकी अधिकता है । जिसके कि वश होकर वे अपने अपने स्थानपर ही पूजा महोत्सव करते हैं । I वैमानिक देवोंके विमानोंकी संख्या भेद स्थिति स्थान आदिका वर्णन किया, अब उनकी लेश्याका वर्णन प्राप्त है । उसके लिये भाष्यकार करते हैं कि - भाष्यम् - अत्राह - त्रयाणां देवनिकायानां लेश्यानियमोऽभिहितः । अथ वैमानिकानां केषां का लेश्या इति । अत्रोच्यते अर्थ - प्रश्न - पूर्वोक्त तीनों देवनिकाय - भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिष्कोंकी लेश्याका नियम पहले बता चुके हैं । परन्तु वैमानिकों की लेश्याका अभीतक कोई भी नियम नहीं बताया । अतएव कहिये कि किन किन वैमानिकोंके कौन कौनसी लेश्या होती है ? इस प्रश्नका उत्तर निम्नलिखित सूत्रसे होता है, अतएव उसको कहते हैं सूत्र - पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २३ ॥ भाष्यम् - उपर्युपरि वैमानिकाः सौधर्मादिषुद्वयोस्त्रिषु शेषेषु च पीतपद्मशुक्ललेश्या भवन्ति यथासङ्ख्यम् । द्वयोः पीतलेश्या सौधर्मैशानयोः । त्रिषु पद्मलेश्याः, सनत्कुमारमा - हेन्द्रब्रह्मलोकेषु । शेषेषु लान्तकादिष्वासर्वार्थसिद्धाच्छुकुलेश्याः । उपर्युपरि तु विशुद्धतरेत्युक्तम् । - अर्थ – यहाँ पर वैमानिक देवोंका प्रकरण है, और उपर्युपरि शब्दका सम्बन्ध चला आता है । अतएव इस सूत्रका अर्थ भी इस प्रकरण और सम्बन्धको लेकर हीं करना १ – संसाराद्भीरुता संवेगः । २ गुणस्तोकं समुल्लङ्घ्य तदहुत्वकथा स्तुतिः । ३ - " वन्दना नतिनुत्याशीर्जयवादादिलक्षणा | भावशुद्धया यस्य तस्य पूज्यस्य विनयक्रिया ॥ ४ - आराधना - पूजा आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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