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________________ सूत्र २२ ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२७ जिससे वे आकाशमें विना आधारके यथास्थान वायुमें ठहरे रहते हैं। अनादिकालसे जिस प्रकार ठहरे हुए हैं, अनन्त कालतक भी उसी प्रकारसे ठहरे रहेंगे । अतएव इस प्रकारसे ठहरनेमें वस्तुका अनादि पारिणामिक स्वभाव ही कारण समझना चाहिये। परमर्षि भगवान् अरिहंतदेवके जन्मकल्याणका महाभिषेकोत्सव जब होता है, ' अथवा जब निःक्रमण-कल्याणक उपस्थित होता है, और तीर्थकर भगवान् दीक्षा धारण करते हैं, यद्वा ध्यानाग्निके द्वारा चार घातिया कर्मोको नष्ट कर देनेपर केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है, तथा कैवल्य प्रकट होनेके अनंतर महान् समवसरणकी रचना हुआ करती है, एवं च जब आय पूर्ण होनेपर शेष समस्त कर्मोंके नष्ट हो जानेसे निर्वाण-कल्याणका प्रसङ्ग आता है, उस समय समस्त देवोंके सोने बैठने और चलने फिरने आदिके आधारभूत स्थान चलायमानकम्पायमान हो जाया करते हैं। उस समय जो देव अपने आसनपर बैठे हों वे, जो सो रहे हों वे और जो केवल स्थित हों वे, अपने अपने आसनके-बैठने सोने और ठहरनेके आधारके सहसा कम्पित होनेसे चलायमान हो जाया करते हैं। अपने स्थानसे चलकर उसी समय भगवानकी स्तुति वन्दना आदि करते हुए उत्सवके मनानेमें प्रवृत्त हुआ करते हैं। इस तरह आसनोंका कम्पित होना और देवोंका चलायमान होना किसका कार्य कहा जा सकता है ? तो इसका कारण या तो शुभ कर्मोंका फलोदय अथवा लोकका अनुभाव-स्वाभाविक अनादि परिणाम ही कहा जा सकता है । जब आसन आदि कम्पित होते हैं, तब सहसा इस प्रकारकी क्रियाओंको देखकर वे देवगण उसके कारणको जाननेके लिये अवधिज्ञानका उपयोग लेते हैं । अवधिका उपयोग करनेपर जब वे देखते हैं, कि भगवान् अरहंतदेवके तीर्थकर नामकर्मके उदयसे असाधारण-जो अरिहंतके सिवाय अन्य किसी भी देवमें न पाई जाय, ऐसी धर्म १-गर्भ-कल्याणकका उत्सव मनाने के लिये भी देव आया करते हैं, परन्तु उसका उल्लेख भाष्यकारने क्यों नहीं किया, सो समझमें नहीं आता। संभव है कि जन्मके कहनेसे ही गर्भ जन्म दोनोंका बोध कराना अभीष्ट हो। भगवान्को जन्मते ही सब देव मिलकर सौधर्मेन्द्रकी मुख्यता मेरुपर लेजाते हैं, और वहाँ क्षीरसमुद्रके जलसे १००८ कलशोंसे उनका अभिषेक करते हैं। कलशोंका प्रमाण त्रिलोकसारमें और जन्म तथा शेष कल्याणोंका विशेष स्वरूप शांतिनाथ पुराण आदिग्रंथों में देखना चाहिये । २-भगवान्-जब दीक्षा धारण करनेके लिये घर छोड़कर वनको जाते हैं, तब देवोंकी लाई हुई विशेष पालखीमें बैठकर जाते हैं । उस पालखीको थोड़ी दूर तक मनुष्य लेकर चलते हैं, पीछे देव आकाश मार्गसे उसको ले जाते हैं । ३-केवलज्ञानकी उत्पत्ति तीर्थकरोंके सिवाय अन्य साधुओंको भी हो सकती है । अतएव तीर्थकरोंके ज्ञानकल्याणकका उत्सव मनानेके सिवाय अन्य केवलियोंके कैवल्योत्पत्तिके समय भी देव उसका उत्सव मनानेके लिये आया करते हैं। ४--तीर्थकर भगवान्के उपदेशकी जगह । इसमें १२ सभाएं और उनके मध्यमें गन्धकुटी हुआ करती है । इसकी रचना अत्यंत महान् है। इसका विशेष स्वरूप त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदिमें देखना चाहिये । ५-आसन कम्पित होते हैं, मुकुट नम्रीभूत होते हैं, व्यन्तरोंके यहाँ पटह-ध्वनि, भवनवासियों के यहाँ शंख-ध्वनि, ज्योतिष्कोंके यहाँ सिंहनाद, वैमानिकोंके यहाँ घंटाका नाद-शब्द हुआ करता है । इस अकस्मात् घटनासे आश्वर्यान्वित होकर वे अवधिज्ञानको जोड़ते हैं। तब उन्हें उसका कारण कल्याणकका समय मालूम होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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