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रायचन्द्र जैन शास्त्रमालायांम
[ चतुर्थोऽध्यायः
उतने ही पक्ष व्यतीत होनेपर, उच्छास लेते हैं, और उतने ही हजार वर्ष बीत जानेपर उनको आहारकी अभिलाषा हुआ करती है | वेदना - वेदना नाम सुख दुःखके अनुभवका है । यह भाव वेदनीयकर्मके उदयसे हुआ करता है | वेदनीयकर्म दो प्रकारका है - साता और असांता । साताके उदयसे सुखका अनुभव और असाताके उदयसे दुःखका अनुभव हुआ करता है । सुखानुभवको सद्वेदना और दुःखानुभवको असद्वेदना कहते हैं । देवों के प्रायः सद्वेदना ही हुआ करती हैं, कभी भी असद्वेदनाएं नहीं होतीं । यदि कदाचित् असद्वेदनाएं उनके हों भी, तो ज्यादःसे ज्यादः अन्तर्मुहूर्ततक ही हो सकती हैं, इससे अधिक नहीं । सद्वेदना की भी निरन्तर धारा - प्रवाहरूप प्रवृत्ति ज्यादः से ज्यादः छह महीनातक चल सकती है, इससे अधिक नहीं । छह महीना के अनन्तर अन्तर्मुहूर्तके लिये वह छूट जाती हैं, अन्तर्मुहूर्त के बाद फिर चालू हो जाती है । उपपात - देवपर्यायमें जन्मग्रहण करनेको उपपात कहते हैं । किस प्रकारका जीव कहाँतक की देवपर्यायको धारण कर सकता है, वह इस प्रकार है - जो अन्य लिङ्गी मिध्यादृष्टि हैं, वे अच्युत स्वर्गतक जाते हैं, इससे ऊपर नहीं जा सकते । अर्थात् जो जैनेतर लिङ्गको धारण करनेवाले और मिथ्या ही दर्शन - मतको माननेवाले हैं, वे मरकर आरण अच्युत कल्पतक जन्म ग्रहण कर सकते हैं । किन्तु जो जैनलिङ्गको धारण करनेवाले हैं, परन्तु मिथ्यादृष्टि हैं, वे मरकर नवग्रैवेयक पर्यन्त जन्मग्रहण कर सकते हैं, इससे ऊपर नहीं' । जो जैनलिङ्गको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि साधु हैं, वे मरकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त योग्यतानुसार कहीं भी जन्म-ग्रहण कर सकते हैं । अर्थात् जिनलिङ्गी सम्यग्दृष्टियोंका उपपात सौधर्म से लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान पर्यन्त है । एक विशेष नियम और भी है, वह यह कि जो चौदह पूर्वका ज्ञान रखनेवाले हैं, दे साधु मरकर ब्रह्मलोकसे लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान पर्यन्त जा सकते हैं । अर्थात् चौदह पूर्वके पाठी मरकर ब्रह्मस्वर्गसे नीचे के कल्पमें जन्म ग्रहण नहीं करते । अनुभाव - परिणमन अथवा कार्यविशेषमें प्रवृत्ति करने को अनुभाव कहते हैं । देवोंके विमान निरालम्ब हैं - सब विना आधारके ही ठहरे हुए हैं । इसी प्रकार जो सिद्धक्षेत्र है, वह भी निरालम्ब ही है । अतएव इस विषय में यह प्रश्न हो सकता है, कि ये विना आधारके किस तरह ठहरे हुए हैं ? इसका उत्तर यही है, कि इस प्रकार से ठहरनेका कारण मात्र लोकस्थिति है । लोकस्थिति लोकानुभाव लोकस्वभाव और जगद्धर्म तथा अनादि परिणाम सन्तति ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । अर्थात् अनादि पारिणामिक स्वभाव ही ऐसा है, कि जिसके निमित्तसे उनका ऐसा ही परिणमन होता है, कि
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१ - दिगम्बर सम्प्रदाय में सोलह स्वर्ग माने हैं, उनमें से बारहवें सहलारतक अन्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि जा सकते हैं, ऐसा माना है । यथा - परमहंस नामा परमती, सहस्रार ऊपर नहिं गती । द्रव्यलिङ्गधारी जे जती, नवग्रैवक ऊपर नहिं गती ॥ ( दण्डक)
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