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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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सूत्र २२ । ]
प्रमाण तथा महत्व बढ़ता गया है, उसी उसी प्रकार उनका अभिमान उत्तरोत्तर कम कम होता गया है । अर्थात् यद्यपि नीचे के देवोंसे ऊपर के वैमानिक' अधिक शक्तिशाली हैं, फिर भी वे नीचेके देवोंसे अधिक निरभिमान हैं । अतएव ऊपर ऊपरके देव अधिकाधिक उत्तम सुखके भोक्ता हैं । क्योंकि उनके दुःखोंके अन्तरङ्ग या बाह्य कारण नहीं है, और सुखके कारण बढ़ते चले गये हैं
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भाष्यम् - उच्छ्रासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः । उच्छ्रासः सर्वजघन्यस्थितीनां देवानां सप्तसु स्तोकेषु आहारश्चतुर्थकालः । पल्योपमस्थितीनामन्तर्दिवसस्योच्छ्रासो पृथक्त्वस्याहारः । यस्य यावन्ति सागरोपमाणि स्थितिस्तस्य तावत्स्वर्धमासेषूच्छ्रासस्तावत्स्वेव वर्षसहस्त्रेष्वाहारः । देवानां सद्वेदनाः प्रायेण भवन्ति न कदाचिदस द्वेदनाः । यदि चासद्वेदना भवन्ति ततोऽन्तर्मुहूर्तमेव भवन्ति न परतोऽनुबद्धाः । सद्वेदनास्तूत्कृष्टेन षण्मासान् भवन्ति । पपातः - आरणाच्युता दूर्ध्वमन्यतीर्थानामुपपातो न भवति । स्वलिङ्गिनां भिन्नदर्शनानामाग्रैवेयकेभ्यः उपपातः । अन्यस्य सम्यग्दृष्टेः संयतस्य भजनीयं आ सर्वार्थसिद्धात् । ब्रह्मलोकादूर्ध्वमासर्वार्थसिद्धाच्चतुर्दश पूर्वधराणामिति । अनुभावो विमानानां सिद्धिक्षेत्रस्यचाकाशे निरालम्बस्थितौ लोकस्थितिरेव हेतुः । लोकस्थितिर्लोकानुभावो लोकस्वभावो जगद्धर्मोऽनादिपरिणामसन्ततिरित्यर्थः । सर्वे च देवेन्द्रा ग्रैवेयादिषु च देवा भगवतां परमर्षीणामहतां जन्माभिषेकनिःक्रमणज्ञानोत्पत्तिमहासमवसरण निर्वाणकालेष्वासीनाः शयिताः स्थिता वा सहसैवासनशयनस्थानाश्रयैः प्रचलन्ति । शुभकर्मफलोदयालोकानुभावत एव वा । ततो जनितोपयोगास्तां भगवतामनन्यसदृशीं तीर्थकरनामकर्मोद्भवां धर्मविभूतिमवधिनाऽऽलोच्य संजातसंवेगाः सद्धर्मबहुमानात्केचिदागत्य भगवत्पादमूलं स्तुतिवन्दनोपासनहितश्रवणैरात्मानुग्रहमाप्नुवन्ति । केचिदपि तत्रस्था एव प्रत्युपस्थापनाञ्चलिप्रणिपातनमस्कारोपहारैः परमसंविग्नाः सद्धर्मानुरागोत्फुल्लनयनवदनाः समभ्यर्चयन्ति ॥
अर्थ — उपर्युक्त वैमानिक देवोंमें उच्छास आहार वेदना उपपात और अनुभावकी अपेक्षा भी ऊपर ऊपर हीनता है । इनकी हीनताका क्रम किस प्रकारका है, सो आगमके अनुसार समझ लेना चाहिये । किन्तु उसका सारांश संक्षेपमें इस प्रकार है: - उच्छास - सबसे जघन्य स्थितिवाले देवोंका उच्छास सात स्तोकमें हुआ करता है । देवोंकी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षकी है । इतनी स्थितिवाले देव सात स्तोक बीत जानेपर उच्छास लिया करते हैं, और उनको आहारकी अभिलाषा एक दिन के अन्तरसे हुआ करती है । जिनकी स्थिति एक पल्की है, वे एक दिनमें उच्छास लिया करते हैं, और उनको पृथक्त्व दिनमें आहारकी 'अभिलाषा हुआ करती है । सागरोपम स्थितिवालों में से जिनकी जितने सागरकी स्थिति हैं, वे
१ – ऊपर गतिस्थिति आदि सूत्रमें बताये गये विषयोंके सिवाय इन विषयोंकी अपेक्षासे भी ऊपर ऊपर हीनता है, ऐसा भाष्यकारका अभिप्राय है । परन्तु अन्य विषयों में इनका अन्तर्भाव हो सकता है । २ - इसका प्रमाण पहले बता चुके हैं । ३ - दोसे नौतककी पृथक्त्व संज्ञा है । दिगम्बर सम्प्रदाय में तीनसे नौतकको पृथक्त्व । अर्थात् स्थतिके पल्योंके अनुसार आहारकी अभिलाषाके दिनोंका प्रमाण २ से ९ तकका यथा योग्य समझ लेना ।
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