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________________ २२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः रहते हुए भी वे वहाँतक गमन नहीं किया करते । न पूर्वकालमें ही उन्होंने कभी गमन किया है, और न भविष्य में ही गमन करेंगे । अर्थात् उनके गति विषयको बतानेका प्रयोजन उनकी गति - शक्तिको बतानामात्र है, कि वे अमुक स्थान तक गमन करनेकी सामर्थ्य रखते हैं। क्योंकि इससे उनकी महत्ताका बोध होता है । किन्तु उनकी वह शक्ति व्यक्त नहीं होती - क्रिया रूपमें परिणत नहीं होती । क्योंकि ऊपरके देवोंके परिणाम महान् - उत्कृष्ट - शुभ होते गये हैं । वे इधर उधर जाने आने आदिके विषयमें उदासीन रहा करते हैं । जिन भगवान्के कल्याणकों को देखना तथा चैत्य चैत्यालय आदिकी वन्दना आदि करना इत्यादि शुभ कार्योंके सिवाय अन्य सम्बन्धसे उनको इतस्ततः घूमना पसन्द नहीं हैउनकी गमन करनेमें प्रीति नहीं हुआ करती । - अन्य विषयों में शरीर की उँचाई सौधर्म और ऐशान कल्पवाले देवोंकी सात अरत्निं प्रमाण है । इनसे ऊपर के देवोंका शरीरोत्सेध सहस्रार कल्पपर्यन्त दो दो कल्पों के प्रति एक एक अरत्नि कमसे कम कम होता गया है । आनत प्राणत आरण और अच्युत कल्पवासीं देवोंका शरीरोत्सेध तीन अरत्नि प्रमाण है । ग्रैवेयकवासियों का दो अरत्नि प्रमाण और पाँच अनुत्तर वासियोंके शरीरका उत्सेध एक अरत्नि प्रमाण है । इस प्रकार क्रमसे ऊपर ऊपरके देवोंके शरीरकी उँचाईका प्रमाण कम कम होता गया है । परिग्रहका प्रमाण इस प्रकार है - सौधर्म कल्पमें विमानोंकी संख्या ३२ लाख, है । ऐशानकल्पमें २८ लाख, स्नानत्कुमारकल्पमें १२ लाख, माहेन्द्रकल्प में ८ लाख, ब्रह्मलोक में चार लाख, लान्तककल्पमें पचास हजार, महाशुक्रमें चालीस हजार, सहस्रार में छह हजार, आनत प्राणत आरण और अच्युत कल्पमें सात सौ, अधोग्रैवेयकमें १११, मध्यम ग्रैवेयकमें १०७, उपरिम ग्रैवेयकमें १०० विमान हैं । विजयादिक अनुत्तर विमान ५ ही हैं । इस प्रकार ऊर्ध्वलोकमें वैमानिक देवोंके समस्त विमानोंकी संख्या चौरासी लाख सतानवे हजार तेईस ( ८४९७०२३ ) है । इससे स्पष्ट होता है, कि ऊपर ऊपरके देवोंका परिग्रह अल्प अल्प होता गया है । इसी प्रकार अभिमान के विषय में समझना चाहिये । स्थान- कल्पविमान आदि, परिवारदेवियाँ और देवें, शक्ति- अचिन्त्य सामर्थ्य, विषय -- इन्द्रियोंका तथा अवधिका विषयक्षेत्र आदि, संपत्ति-वैभव ऐश्वर्य, अथवा विषयसंपत्ति - शब्दादि रूप समृद्धि, और स्थितिका प्रमाण, ये सब विषय ऊपर ऊपरके देवोंके महान् हैं । फिर भी उनके सम्बन्धसे उन देवोंको गर्व नहीं हुआ करता । प्रत्युत जिस जिस तरह उनका वैभव और शक्ति आदिका 1 १ - एक हस्त प्रमाणसे कुछ कमको अरत्नि कहते हैं । अर्थात् कोहनी से कनिष्टिका पर्यन्त । २ - दासी दास प्रभृति । Jain. Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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