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________________ सूत्र २२ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२३ अपेक्षा अधिकता है, उसी प्रकार किन्हीं विषयोंकी अपेक्षासे अधिकाधिक न्यूनता भी है, या नहीं । यदि है तो किन किन विषयोंकी अपेक्षासे है । अतएव कहते हैं कि वे देव सूत्र - गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २२ ॥ भाष्यम् - गतिविषयेण शरीरमहत्त्वेन महापरिग्रहत्वेनाभिमानेन चोपर्युपरि हीनाः । तद्यथा - द्विसागरोपमजघन्यस्थितीनां देवानामासप्तम्यां गतिविषयस्तिर्यगसंख्येयानि योजनकोटीकोटी सहस्राणि I ततः परतो जघन्यस्थितीनामेकैकहीना भूमयो यावतृतीयेति । गतपूर्वाश्च गमिष्यन्ति च तृतीयां देवाः परतस्तु सत्यपि गतिविषये न गतपूर्वा नापि गमिष्यन्ति । महानुभावक्रियातः औदासीन्याच्चोपर्युपरि देवा न गतिरतयो भवन्ति । सौधर्मेशानयोः कल्पयोर्देवानां शरीरोच्छ्रायः सप्तारत्नयः । उपर्युपरिर्द्वयोद्वयोरेकैकारत्निहींना आ सहस्रारात् । आनतादिषु तिस्रः । ग्रैवेयकेषु द्वे । अनुत्तरे एका इति । सौधर्मे विमानानां द्वात्रिंशच्छतसहस्राणि । ऐशानेऽष्टाविंशतिः । सानत्कुमारे द्वादश । माहेन्द्रेऽष्टौ । ब्रह्मलोके चत्वारि शतसहस्राणि । लान्तके पञ्चाशत्सहस्राणि । महाशुक्रे चत्वारिंशत् । सहस्रारे षट् । आनतप्राणतारणाच्युतेषु सप्त शतानि अधोग्रैवेयकाणां शतमेकादशोत्तरम् । मध्ये सप्तोत्तरम् । उपर्युकमेव शतम् । अनुत्तराः पञ्चैवेति । एवमूर्ध्वलोके वैमानिकानां सर्वविमानपरिसंख्या चतुरशीतिः शतसहस्राणि सप्तनवतिश्च सहस्राणि त्रयोविंशानीति । स्थानपरिवारशक्तिविषयसंपतस्थितिष्वल्पाभिमानाः परमसुखभागिन उपर्युपरीति ॥ 1 अर्थ-गति विषय- अपने स्थानसे दूसरे स्थानको जाना आदि, शरीरकी उँचाई आदि, महान् परिग्रह-ऐश्वर्य और विभूति तथा उसमें ममकार और अहंकारका भाव रखना, अभिमान-अपने से बड़े अथवा बराबरवालेको अपने से छोटा समझना, अथवा अपने में महत्ताका अनुभव करना, इन चार विषयों की अपेक्षा ऊपर ऊपरके देव हीन हैं । ऊपरके देवों में अपनेसे नीचेके देवोंकी अपेक्षा ये विषय कम कम पाये जाते हैं । यथा - जिनकी जघन्य स्थिति दो सागरकी है, उनकी गतिका विषय सातवीं पृथिवी पर्यन्त है, यह प्रमाण अघो दिशाकी अपेक्षासे है । तिर्यक्- पूर्वादि दिशाओंकी अपेक्षासे असंख्यात कोडाकोड़ी सहस्र योजन प्रमाण गतिका विषय समझना चाहिये । इसके आगे के जघन्य स्थितिवाले देवोंका गतिका विषयभूत क्षेत्र तीसरी पृथिवी पर्यन्त क्रमसे एक एक भूमि कम कम होता गया है । जिनका विषय तीसरी पृथिवी तकका है, वे देव अपने गतिके विषयभूत क्षेत्रपर्यन्त गमन कर सकते हैं, और करते भी हैं । पर्व जन्म के स्नेह आदिके वशसे अपने किसी इष्ट प्राणी से मिलने आदिके लिये वे वहाँतक - तीसरी भूमितक जा सकते हैं और जाते हैं, । पूर्वकालमें अनेक देव इस प्रकारसे गये भी हैं और भविष्य में जायगे भी, परन्तु जिनका गतिका विषयभूत क्षेत्र तीसरी पृथिवी से अधिक है, उनका उतना गतिका विषय 1 १ — जैसे कि बलभद्रका जीव अपने पूर्वजन्मके भाई कृष्ण के जीवसे मिलने के लिये स्वर्गसे नरकम गया था । इसकी कथा भी जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण में लिखी है । इसी प्रकार और भी अनेक कथायें प्रसिद्ध हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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