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________________ सूत्र २४ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २३१ उस विचारकी अत्यंत प्रशंसा करते हैं, और संसारके ताप त्रयसे संतप्त जीवोंके ऊपर अनुकम्पा भावसे कहते हैं, कि हे भगवन्, आपने जो यह विचार किया है, वह अतिशय स्तुत्य है । आपने तीन जगत्का उद्धार करने के लिये ही अवतार धारण किया है । आपके दीक्षा धारण किये विना जीवोंका अज्ञान और क्लेश दूर नहीं हो सकता । अतएव इन दीन प्राणियोंपर कृपा करके शीघ्र ही तपस्या में प्रवृत्त हो कैवल्य को प्राप्त करके इनको हितका उपदेश दीजिये । 1 लौकान्तिकोंके सिवाय अच्युत कल्प पर्यन्त के देवों में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही प्रकारके देव हुआ करते हैं । यद्यपि जिन भगवान के जन्मादि कल्याणके समय दोनों ही प्रकारके देव सम्मिलित होते हैं, और स्तुति वन्दना प्रणाम नमस्कार पूजोपहारादिमें स्वयं प्रवृत्त होते हैं। फिर भी दोनोंकी अन्तरङ्ग रुचिमें महान् अन्तर है । जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे बहुमान पूर्वक भगवान् के कल्याणक का यह अवसर है, यह बात आसन कम्पनादिका निमित्त पाकर जोड़े गये अबधिज्ञानेक द्वारा मालूम होते ही सहसा उस उत्सवको मनानेमें प्रवृत्त होते हैं, उनकी ऐसी प्रवृत्तिका कारण सद्धर्मका अनुराग, दर्शनविशुद्धि, भक्ति-भावका अतिरेक, भक्तिवश जिन भागवान्का अनुसरण करनेकी विशिष्ट भावना, कल्याणोत्सव मनानेका अनुराग, तीर्थंकर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई असाधारण विभूतिको देखने के लिये उत्पन्न हुई उत्सुकता, तत्त्वस्वरूपमें उत्पन्न हुई शंकाओं को दूर करनेकी अभिलाषा, नवीन प्रश्न करनेकी सदिच्छा आदि हैं । इन कारणोंके वश होकर ही वे तीर्थकर भगवान्के चरणमूलमें आते हैं, और वहीं पर अपनी आत्माका अत्यन्त एकान्ततः हित सिद्ध होना समझकर उनकी स्तुति वन्दना पूजा उपासना और धर्म - श्रुतिमें प्रवृत्त होते हैं. जिससे कि वे अपनी और परकी आत्माओंको श्रद्धा तथा संवेगके द्वारा कल्मषतासे रहित बना देते हैं । किन्तु मिथ्यादृष्टि देवों में यह बात नहीं है । वे दूसरोंके अनु रोधसे, अथवा इन्द्र जैसा करते हैं, वैसा नहीं करेंगे, तो वे संभवतः कुपित हों, ऐसा समझकर इन्द्रका अनुसरण करनेके अभिप्रायसे, वहाँपर दूसरे देव करते हैं, उनकी - सम्यग्दृष्टियों की देखा देखी, अपने पूर्वजोंका आचरण समझकर उसमें प्रवृत्ति करते हैं । उनके हृदयमें सद्धर्मके प्रति स्वयं बहुमान नहीं होता । जो ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी हैं, वे अपने स्थानपर ही से मन वचन और 'कायके द्वारा एकाग्र भावना स्तुति और हाथ जोड़ना प्रणाम करना आदि कार्योंमें प्रवर्तन किया करते हैं । १ -- लौकान्तिकोंका यह नियोग-नियम ही है, कि जब तर्थिंकर भगवान् दीक्षाका विचार करें, उसी समय वे आकर उनकी स्तुति करें । २ – कुलाचार समझकर । जिस प्रकार यहाँपर बहुतसे लोक अपने अपने कुलके देवी देवोंको यह समझकर पूजा करते हैं, कि हमारे पूर्वज इनको पूजते थे, इसलिये हमें भी पूजना चाहिये । इसी तरह raja कितने ही मिथ्यादृष्टि देव भरंहतको अपना कुलदेव समझकर पूजते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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