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________________ सूत्र २१।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२१ विधानतस्तुल्यास्तत्रापि विशुद्धितोऽधिका भवन्तीति । कर्मविशुद्धित एव वाधिका भवन्तीति । इन्द्रियविषयतोऽधिका-यदिन्द्रियपाटवं दूरादिष्टाविषयोपलब्धौ सौधर्मदेवानां तत्प्रकृष्टतरगुणत्वादल्पतरसंक्लेशत्वाच्चाधिकमुपर्युपरि इति । अवधिविषयतोऽधिकाः--सौधमैंशानयोर्देवा अवधिविषयेणाधो रत्नप्रभां पश्यन्ति तिर्यगसंख्येयानि योजनशतसहस्राण्यूज़मास्वभवनात् सनत्कुमारमाहेन्द्रयोःशर्कराप्रभां पश्यन्ति तिर्यगसंख्येयानि योजनशतसहस्राण्यूर्ध्वमास्वभवनात् । इत्येवं शेषाः क्रमशः । अनुत्तरविभानवासिनस्तु कृत्स्नां लोकनाडी पश्यन्ति । येषामपि क्षेत्रतस्तुल्योऽवधिविषयः तेषामप्युपर्युपंरि विशुद्धितोऽधिको भवतीति ॥ अर्थ-उपर्युक्त सौधर्म आदिक कल्प और कल्पातीतोंके देव क्रमसे पूर्व पूर्वकी अपेक्षा ऊपर ऊपरके सभी वैमानिक इस सूत्रमें बताये हुए स्थिति प्रभाव सुख द्युति लेश्या विशुद्धि इन्द्रिय विषय और अवधिविषय इन ७ विषयों में अधिकाधिक हैं । अपनेसे नीचेके देवोंकी अपेक्षा सभी वैमानिकदेवोंकी स्थिति आदिक अधिक ही हुआ करती है । यथा-स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट भेदोको आगे चलकर स्वयं ग्रन्थकार इसी अध्यायमें लिखेंगे । अतएव इस विषयमें यहाँ लिखनेकी आवश्यकता नहीं हैं । फिर भी यहाँपर जो स्थितिका उल्लेख किया है, उससे उसका यह प्रयोजन अवश्य समझ लेना चाहिये, कि जिन उपरितन और अधस्तन विमानवर्ती देवोंकी स्थिति समान है, उनमें भी जो ऊपरके विमानों में रहनेवाले और उत्पन्न होनेवाले हैं, वे अन्य गुणोंमें अधिक हुआ करते हैं, अथवा उनकी स्थिति दूसरे गुणोंकी अपेक्षा अधिक हुआ करती है। __अचिन्त्य शक्तिको प्रभाव कहते हैं । यह निग्रह अनुग्रह विक्रिया और पराभियोग आदिके रूपमें दिखाई पड़ता है । शाप या दण्ड आदिके देनेकी शक्तिको निग्रह तथा परोपकार आदिके करनेकी शक्तिको अनुग्रह कहते हैं । शरीरको अनेक प्रकारका बना लेनेकी अणिमा महिमा आदि शक्तियोंको विक्रिया कहते हैं। जिसके बलपर जबरदस्ती दुसरेसे कोई काम करा लिया जा सके, उसको पराभियोग कहते हैं। यह निग्रहानुग्रह आदिकी शक्ति सौधर्मादिक देवोंमें जितने प्रमाणमें पाई जाती है, उससे अनन्तगुणी अपनेसे ऊपरके विमानवर्ती देवोंमें रहा करती है। किन्तु वे अपनी उस शक्तिको उपयोगमें नहीं लिया करते । क्योंकि उनका कर्म-भार अति मन्द हो जानेसे अभिमान भी अत्यन्त मन्द हो जाता है, और इनके संक्लेश परिणाम भी अतिशय अल्पतर हो जाते हैं । ऊपर उपरके देवोंके चित्त संक्लेश-कषायरूप परिणामोंके द्वारा कम कम व्याप्त हुआ करते हैं । अतएव उनकी निग्रह अथवा अनुग्रह आदिके करनेमें प्रवृत्ति कम हुआ करती है । इसी प्रकार सुख और द्युति भी उत्तरोत्तर अधिकाधिक है । क्योंकि वहाँके क्षेत्रका स्वभाव ही इस प्रकारका है, कि जिसके निमित्तसे वहाँके पुद्गल अपनी अनादि पारणामिक शक्तिके द्वारा अनन्तगुणे अनंतगुणे अधिकाधिक शुभरूप ही परिणमन किया करते हैं, और वह परिणमन इस तरहका हुआ करता है, कि जो ऊपर ऊपरके देवोंके लिये अनन्तगुणे अनंतगुणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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