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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम
[ चतुर्थोऽज्यायः
इष्ट विषयोंके द्वारा जो सिद्ध हो चुके हैं । यद्वा जिनके समस्त अभ्युदयरूप प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं, उन देवोंको सर्वार्थसिद्ध कहते हैं । उनके विमानोंका नाम भी सर्वार्थसिद्ध है ।
सामान्यतया विजय आदि पाँचो ही अनुत्तर विमानों में निवास करनेवाले देवोंने कर्मभारको प्रायः जीत लिया है; क्योंकि अब उनका कर्म-पटल गुरु और सघन नहीं रहा है, लघु
और तनु रह गया है । इनको निर्वाणकी प्राप्ति अत्यन्त निकटतर है, अतएव इनके कल्याणपरम कल्याण अत्यल्प समयकी अपेक्षा उपस्थित हुए सरीखे ही समझने चाहिये । देव-पर्यायसे च्युत होकर मनुष्य-पर्यायको प्राप्त करके भी ये परीपह-उपप्तर्ग और विघ्न-बाधाओंसे पराजित नहीं हुआ करते, और देव-पर्यायमें भी निरंतर तृप्त ही रहा करते हैं। इनको कोई भी क्षुधादिककी बाधा पराजित–पीडित नहीं कर सकती, अतएव ये सभी देव अपराजित कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार इन सभी देवोंकी संसारसम्बन्धी प्रायः सभी कर्तव्यताएं समाप्त हो चकी हैं, प्रायः सभी इष्ट विषयोंमें ये सिद्ध-तप्त हो चुके हैं, और इनका उत्तमाथे-सकल कोंके क्षयरूप परमनिःश्रेयस-कल्याण भी प्रायः सिद्ध हो चका है, क्योंकि ये अनन्तर आगामी भवसे ही मुक्त होनेवाले हैं । अतएव पाँचों ही अनुत्तर विमानवासी विजय आदिक कल्पातीत देवोंको अपराजित और सर्वार्थसिद्ध कह सकते हैं। परन्तु उनके ये नाम जो प्रसिद्ध हैं, सो प्रसिद्धि या रूढिकी अपेक्षासे हैं।
इस प्रकार वैमानिकदेवोंके सौधर्मादि कल्प और ग्रैवेयकादि कल्पातीत भेदोंको बताया और उनकी ऊपर ऊपर उपस्थिति किस किस प्रकारसे है, तथा उनके समास विग्रहार्थ आदि भी बताये अब उन्हीं प्रकृत वैमानिक देवोंके ही विषयमें और भी अधिक विशेषता बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:सूत्र-स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि
विषयतोऽधिकाः॥२१॥ भाष्यम्-यथाक्रमं चैतेषु सौधर्मादिषु उपर्युपरि पूर्वतः पूर्वतः एभिःस्थित्यादिभिरथैरधिका भवन्ति । तत्र स्थितिरुत्कृष्टा जघन्या च परस्तावक्ष्यते । इह तु वचने प्रयोजनं येषामपि समा भवति तेषामप्युपर्युपरि गुणाधिका भवतीति यथा प्रतीयेत । प्रभावतोऽधिकाः-यः प्रभावो निग्रहानुग्रहविक्रियापराभियोगादिषु सौधर्मकाणांसोऽनन्तगुणाधिक उपर्युपरि । मन्दाभिमानतया त्वल्पतरसंक्लिष्टत्वादेते न प्रवर्तन्त इति । क्षेत्रस्वभाव. जनिताच्च शुभपुद्गलपरिणामात्सुखतो द्युतितश्चानन्तगुणप्रकर्षणाधिकाः । लेश्याविशुद्धया धिका:-लेश्यानियमः परस्तादेषां वक्ष्यते । इह तु वचने प्रयोजनं यथा गम्येत यत्रापि
१-दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित इन चार विमानवाले देव दो मनुष्य-भवतक धारण करके मोक्षको जाते हैं, और सर्वार्थसिद्धिके देव एक ही भव-धारण करके मुक्त हो जाते हैं।
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