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________________ सूत्र २० ।। समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । समान आरण और अच्युत नामके दो कल्प समान श्रेणीमें व्यवस्थित हैं । इस प्रकार बारह कल्प हैं। इनके ऊपर ग्रैवेयक हैं । ये नौ हैं और वे ऊपर ऊपर अवस्थित हैं। इनके ऊपर विजयादिक पाँच महाविमान हैं। भाष्यम्-सुधर्मा नाम शकस्य देवेन्द्रस्य सभा, सा तस्मिन्नस्तीति सौधर्मः कल्पः । ईशानस्य देवराजस्य निवास ऐशानः, इत्येवमिन्द्राणां निवासयोगाभिख्याः सर्वे कल्पाः । प्रैवे. यकास्तु लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेशविनिविष्टा ग्रीवाभरणभूता अवा ग्रीव्या त्रैवेया त्रैवेयका इति॥ अनुत्तराः पञ्च देवनामान एव । विजिता अभ्युदयविघ्नहेतवः एभिरिति विजय वैजयस्तजयन्ताः। तैरेव विघ्नहेतुभिर्न पराजिता अपराजिताः। सर्वेष्वभ्युदयार्थेषु सिद्धाः सर्वार्थेश्च सिद्धाः सर्वे चैषामभ्युदयार्थाः सिद्धा इति सर्वार्थसिद्धाः । विजितप्रायाणि वा कर्माण्येभिरुप स्थितभद्राः परीषहैरपराजिताः सर्वार्थेषु सिद्धाः सिद्धप्रायोत्तमार्था इति विजयादय इति ॥ ____ अर्थ-पहले सौधर्म कल्पके इन्द्रका नाम शक है, यह बात पहले बता चुके हैं । इस देवराजकी सभाका नाम सुधर्मा है । इस समाके नामके सम्बन्धसे ही पहले कल्पको सौधर्म कहते हैं । दूसरे कल्पके देवरान-इन्द्रका नाम ईशान है । उसके निवासके कारण ही दूसरे कल्पको ऐशान कहते हैं । इसी प्रकार इन्द्रोंके निवासके सम्बन्धसे सम्पूर्ण कल्पोंका नाम समझ लेना चाहिये । जो इन्द्रोंके निवास स्थान-सभा आदिका अथवा इन्द्रोंका नाम है उसीके अनुसार उन कल्पोंका भी नाम है । यह व्यवहार बारह कल्पोंमें ही हो सकता है। इनके ऊपर अवेयक हैं । इनको अवेयक कहनेका कारण यह है, कि यह लोक पुरुषाकार है। उसके ग्रीवाके प्रदेशपर ये अवस्थित हैं। अथवा उस ग्रीवाके ये आभरणभत हैं। अतएव इनको ग्रैव ग्रीन्य ग्रैवेय और ग्रैवेयक कहते हैं। पाँच महाविमान जोकि ग्रैवेयकोंके ऊपर हैं, उनको अनुत्तर कहते हैं। इनके नाम-विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित तथा सर्वार्थसिद्ध हैं । ये नाम देवोंके नामके सम्बन्धसे हैं। पहले तीन विमानोंके देव विजयशील-स्वभावसे ही जयरूप हैं। उन्होंने अपने अभ्युदयके विघ्नके कारणोंको भी जीत लिया है, अतएव उनको क्रमसे विजय वैजयन्त और जयन्त कहते हैं । उनके विमानोंके भी क्रमसे ये ही नाम हैं। जो उन विघ्नके कारणोंसे पराजित नहीं होते, उनको अपराजित कहते हैं। उनके विमानका नाम भी अपराजित है । सम्पूर्ण अभ्युदयरूप प्रयोजनोंके विषयमें जो सिद्ध हो चुके हैं । अथवा समस्त १-जो ग्रीवाके स्थानपर हो, ऐसा इस शब्दका अर्थ है । इसकी निरुक्ति इसी सूत्रकी व्याख्या में आगे चलकर लिखी है। २-दिगम्बर सम्प्रदायमें 7वेयकोंके ऊपर और सर्वार्थसिद्धिके नीचे नौ अनुदिश और भी माने हैं। ३-लोकः पुरुष इवेत्युपचारालोक एव पुरुषस्तस्य ग्रोवेव ग्रीवा तत्रभवा अवा अवेयाः “ ग्रीवाभ्योऽणच " इति अणु, (-पाणिनीय अध्याय ४ पाद ३ सूत्र ५७) तथा “ कुलकुक्षिग्रीवाभ्यः श्वास्यलकारेषु" (-पाणिनीय अध्याय ४ पाद २ सूत्र ९६) इति ग्रीच्या प्रैवेयकाश्चेति । ग्रीवायां साधवो ग्रीव्या इति वा व्युत्पत्तिः कर्तव्या। ये सबके उत्तर-ऊपर हैं-इनसे ऊपर और कोई भी विमान नहीं है । अतएव इनको अनुत्तर कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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