________________
२१८
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ चतुर्थोऽध्यायः
सूत्र -- सौधर्मैशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोक - लान्तकमहाशुक्रसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च ॥ २० ॥
भाष्यम् - एतेषु सौधर्मादिषु कल्पविमानेषु वैमानिका देवा भवन्ति । तद्यथा - सौधस्य कल्पस्योपरि ऐशानः कल्पः । ऐशानस्योपरि सनत्कुमारः । सनत्कुमारस्योपरि माहेन्द्र इत्येवमा सर्वार्थसिद्धादिति ॥
अर्थ - सौधर्म ऐशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार आनत प्राणत आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं । इन सौधर्म आदि कल्प के विमानोंमें वैमानिक देव रहते हैं | अच्युत कल्पके ऊपर नवग्रैवेयक हैं । जोकि ऊपर ऊपर अवस्थित हैं । ग्रैवेयकोंके ऊपर पाँच महा विमान हैं, जिनको कि अनुत्तर कहते हैं, और जिनके नाम इस प्रकार हैं-विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त सभीका अवस्थान क्रमसे ऊपर ऊपर है ।
1
भावार्थ — ज्योतिष्क विमानोंसे असंख्यात योजन ऊपर चलकर मेरुसे ऊपर पहला सौधर्मकल्प है । यह पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर दक्षिण चौड़ा है । इसकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्यात कोटाकोटी योजनकी है । क्योंकि इसका विस्तार लोकके अन्ततक है । इसकी आकृति आधे चन्द्रमाके समान है । यह सर्वरत्नमय और अनेक शोभाओंसे युक्त है इसके ऊपर ऐशान कल्प है, जोकि इससे उत्तरकी तरफ कुछ ऊपर चलकर अवस्थित है | सौधर्म कल्पसे अनेक योजन ऊपर सनत्कुमार कल्प है, जोकि सौधर्मकल्पकी श्रेणी में ही व्यवस्थित है । ऐशान कल्पके ऊपर माहेन्द्र कल्प है । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके ऊपर अनेक योजन चलकर दोनोंके मध्यभागमें पूर्ण चन्द्रमाके आकारवाला ब्रह्मलोके नामका कल्प है । इसके ऊपर लान्तक महाशुक्र और सहस्रार ये तीन कल्प हैं । इनके ऊपर सौधर्म ऐशान कल्पोंकी तरह आनत और प्राणत नामके दो कल्प हैं । इनके ऊपर सनत्कुमार और माहेन्द्रके
१ - इस विषय में टीकाकारने भी लिखा है कि " ज्योतिष्को परितनप्रस्ताराद संख्येययोजनमध्वानमारुह्य मेरूपलक्षितदक्षिणभागार्थव्यवस्थितः प्राक् तावत् सौधर्मः कल्पः । " परन्तु असंख्यात योजन ऊपर चलकर किंस तरह लिखते हैं, सो समझमें नहीं आता । क्योंकि मेरुप्रमाण मध्यलोक है, उसके ऊपर ऊर्ध्वलोक है, और मेरुका प्रमाण एक लाख योजनका ही है । अथवा संभव है, कि सौधर्म स्वर्गकी उँचाईको लक्ष्यमें रखकर अन्तिम उपरितन विमानकी अपेक्षासे ही असंख्यात योजन ऊपर ऐसा लिख दिया हो । २ - यहाँपर लोक शब्द लौकान्तिक देवोंका बोध करनेके लिये हैं, ये अत्यंत शुभ परिणामवाले देव हैं, जोकि ऋषियोंकी तरह रहने के कारण ब्रह्मर्षि कहाते हैं । इनकी रुचि जिनभगवान् के कल्याणकोंको देखनेकी अधिक रहा करती है । जिस समय तीर्थकर दीक्षा धारण करनेका विचार करते हैं, उसी समय ये आकर उनके उस विचारकी प्रशंसा किया करते हैं । ये मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर नियमसे मोक्षको जाते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org