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सूत्र १७-१८-१९ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । कहते हैं । बिखरे हुए फूलोंकी तरह जो अनवस्थितरूपसे जहाँ तहाँ अवस्थित रहते हैं, उनको पुष्पप्रकीर्णक कहते हैं । इनमें रहनेवाले देवोंका नाम वैमानिक है। यही चौथा देवनिकाय है । आगे इसीका क्रमसे वर्णन करेंगे ।
वैमानिक देव जोकि अनेक विशेष ऋद्धियोंके धारक हैं, उनके मूलमें कितने भेद हैं, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र-कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १८॥ भाष्यम्-द्विविधा वैमानिका देवाः-कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । तान् परस्तात वक्ष्याम इति।
अर्थ-वैमानिक दो प्रकारके हैं-एक कल्पोपपन्न, दसरे कल्पातीत । इन भेदोंका आगे चलकर वर्णन करेंगे।
भावार्थ-पूर्वोक्त इन्द्र आदि दश प्रकारकी कल्पना जिनमें पाई जाय, उनको कल्प कहते हैं । यह कल्पना सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत स्वर्गतक ही पाई जाती है । इन कल्पोंमें उत्पन्न होनेवालोंको कल्पोपपन्न कहते हैं । इस कल्पनासे जो अतीत-रहित हैं, उनको कल्पातीत कहते हैं । अच्युत स्वर्गसे ऊपर ग्रैवेयक आदिमें जो उत्पन्न होनेवाले हैं, उनको कल्पातीत समझना चाहिये । वैमानिक देवोंके सामान्यसे ये दो मूल भेद हैं। इनके उत्तरभेदोंका वर्णन आगे क्रमसे करेंगे।
इन दो भेदोंमेंसे पहले कल्पोपपन्न देवोंके कल्पोंकी अवस्थिति किस प्रकारसे है ! इसी बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र-उपर्युपरि ॥ १९ ॥ भाष्यम्-उपर्युपरि च यथानदशं वेदितव्याः। नैकक्षेत्रे नापि तिर्यगधोवेति ।
अर्थ-यह सूत्र देवों या विमानोंके विषयमें न समझकर कल्पोंके विषयमें ही समझना चाहिये । सौधर्म आदि कल्पोंका नामनिर्देश आगेके सूत्रमें करेंगे । उनका अवस्थान क्रमसे ऊपर ऊपर समझना चाहिये । अर्थात् निर्देशके अनुसार सौधर्मके ऊपर ऐशान और ऐशानके ऊपर सनत्कुमार कल्प है। इसी क्रमसे अच्युतपर्यन्त कल्पोंका अवस्थान ऊपर ऊपर है। ये कल्प न तो एक क्षेत्रमें हैं-सबके सब एक ही जगह अवस्थित नहीं है, और न तिर्यक् अथवा नीचे नीचेकी तरफ ही अवस्थित है।
नामनिर्देशके अनुसार कल्पोंका और उसके ऊपर कल्पातीतोंका अवस्थान है, यह बात ऊपर बता चुके हैं, किन्तु दोनों से किसीका भी अभीतक नामनिर्देश नहीं किया है । अतएव वे कौनसे हैं, इस बातको बतानेके लिये सत्र कहते हैं:
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