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________________ २१६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः उनकी लेश्या और प्रकाश भी अवस्थित है । लेश्यासे मतलब वर्णका है। मनुष्य-लोकमें ज्योतिष्क विमानोंके गतिशील होनेसे उपराग आदिके द्वारा वर्णमें परिवर्तन भी हो जाता है, परन्तु नृलोकके बाहर ज्योतिष्कोंके अवस्थित होनेसे उपराग आदि संभव नहीं है, अतएव वहाँपर वर्णमें परिवर्तन नहीं हो सकता, उनका पीत वर्ण अवस्थित रहता है । इसीलिये-निष्कम्प रहनेके कारण ही उनका उदय और अस्त नहीं हुआ करता, अतएव उनका एक लाख योजन प्रमाण प्रकाश अवस्थित रहता है । वहाँके सूर्य चन्द्रमाओंकी किरणे अत्यंत उग्र उष्ण अथवा शीतरूप नहीं हैं। सूर्यकी किरणे अत्यन्त उष्ण नहीं है- सुखकर हैं। चन्द्रमाकी किरणे अत्यन्त शीत नहीं हैं। वे भी सुखकर हैं । दोनोंकी ही किरणे स्वभावसे ही साधारण और सुखकर रहती हैं। इस प्रकार तीसरे देवनिकायका वर्णन पूर्ण हुआ। ज्योतिष्कोंके स्थान वर्ण गति विष्कम्भ आदिका और उनके विमान तथा उनकी गतिके द्वारा होनेवाले काल-विभाग एवं उस काल-विभागका स्वरूप भी बताया। शेष वैभव और अवधि प्रमाण आदिका स्वरूप ग्रन्थान्तरोंसे देखकर जानना चाहिये । अब क्रमानुसार चौथे देवनिकायका वर्णन अवसर प्राप्त है । उनके नाम भेद आदिका विशेष वर्णन करनेके लिये सबसे पहले अधिकार सूत्रका उल्लेख करते हैं: सूत्र-वैमानिकाः॥ १७ ॥ ____भाष्यम्-चतुर्थो देवनिकायो वैमानिकाः । तेऽतऊर्ध्व वक्ष्यन्ते । विमानेषु भवा वैमानिकाः। अर्थ—चौथे देवनिकायका नाम वैमानिक है । यहाँसे अब इसी निकायका वर्णन करेंगे। विमानोंमें उत्पन्न होनेवाले या रहनेवालोंको वैमानिक कहते हैं। भावार्थ-यह अधिकार सत्र है । यहाँसे वैमानिक देवोंका अधिकार चलता है, स्थितिके प्रकरणसे पूर्वतक अर्थात् आगे चलकर स्थितिका वर्णन जो किया जायगा, उससे पहलेयहाँसे लेकर उस प्रकरणसे पहले पहले जो कुछ भी अब वर्णन किया जायगा, वह वैमानिक देवोंके विषयमें समझना चाहिये, ऐसा इसका अभिप्राय है । विमानोंमें होनेवालोंको वैमानिक कहते हैं। यद्यपि ज्योतिष्कदेव भी विमानों में ही उत्पन्न होते और रहते हैं, परन्तु यह वैमानिक शब्द समभिरूढ नयकी अपेक्षा सौधर्मादि स्वर्गवासी देवोंमें ही रूढ है । विमान तीन प्रकार• के हैं-इन्द्रक श्रेणिबद्ध और पुष्पप्रकीर्णके । जो सबके मध्यमें होता है, उसको इन्द्रक कहते हैं, जो पूर्व आदि दिशाओंके क्रमसे श्रेणिरूप-एक लाइनमें अवस्थित हैं, उनको · श्रेणिबद्ध १-वैमानिकशब्द निरुक्तिसिद्ध भी है । यथा-यत्रस्था आत्मनो वि-विशेषेण सुकृतिनो मानयन्ति इति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः । अथवा--यत्रस्थाः परस्परं भोगातिशयं मन्यन्ते इति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः । २-ये शब्द भी अन्वर्थ और निरुक्तिसिद्ध हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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