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सूत्र १५-१६ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२१५ रहते हैं। हरि और रम्यक क्षेत्रमें सुषमा कालकी परिस्थिति हमेशा रहा करती हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रमें सदा सुषमदुःषमा कालकी प्रवृत्ति रहती हैं। विदेहक्षेत्र तथा अन्तरद्वीपोंमें हमेशा दुष्षमसुषमा काल बना रहता है।
ऊपर कालके अनेक भेद जो बताये हैं, उनके सिवाय और भी उसके अनेक भेद हैं । परन्तु उन सब काल-विभागोंका व्यवहार मुख्यतया मनुष्य-क्षेत्रमें ही हुआ करता है। मुख्यतया कहनेका अभिप्राय यह है, कि मनुष्यलोकमें ज्योतिष्क-चक्रके भ्रमशील होनेसे वास्तवमें तो यहाँपर कालका विभाग हुआ करता है। परन्त यहाँ जो व्यवहार प्रसिद्ध है, उसके सम्बन्धसे देवलोक आदिमें भी उसका व्यवहार होता है ।
यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है, कि मनुष्यलोकमें तो ज्योतिषचक्र मेरुकी प्रदक्षिणा देता हुआ नित्य ही गमनशील है । परन्तु उसके बाहर कैसा है ? विना प्रदक्षिणा दिये ही गतिशील है ? अथवा नित्य गतिशील न होकर कदाचित् गतिशील है ? यद्वा उसका कोई
और ही प्रकार है ? इसके उत्तरमें नृलोकके बाहर ज्योतिष्क विमानोंकी जैसी कुछ अवस्था है, उसको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-बहिरवस्थिताः ॥ १६ ॥ __भाष्यम्-नृलोकाद् बहियोतिष्काः अवस्थिताः, अवस्थिता इत्यविचारिणः, अवस्थित विमानप्रदेशा अवस्थितलेश्याप्रकाशा इत्यर्थः। सुखशीतोष्णरश्मयश्च ॥
___ अर्थ-नृलोक-मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त जो क्षेत्र है, उससे बाहर सूर्य चन्द्र आदि जो ज्योतिष्क विमान हैं, वे अवस्थित हैं । अवस्थितसे अभिप्राय अविचारीका है । अर्थात् वहाँके ज्योतिष्क विचरण-भ्रमण नहीं करते, अतएव अवस्थित हैं। उनके विमानोंके प्रदेश भी अवस्थित हैं । अर्थात् न ज्योतिष्क देव ही गमन करते हैं, और न उनके विमान ही गमन करते हैं।
१--यहाँ मध्यम भोगभूमि है। यहाँ शरीर २ कोशका आयु २ पल्यकी इत्यादि सब विषय मध्यम समझना चाहिये । यहाँके मनुष्योंके शरीरकी कान्ति चन्द्रमा समान मानी है। २-यह जघन्य भोगभूमि है। यहाँ शरीर १ कोश आयु १पल्यकी होती है । शरीरकी कान्ति महदीके पत्ते सरीखे कही है। ३-यह कर्मभूमि है, यहाँ राजा प्रजाका व्यवहार और आजीवनके उपायोंका व्यवहार चलता है । यहाँ शरीरोत्सेध उत्कृष्ट ५२५ धनुष और आयु ८४ हजार वर्ष है ।
४-पुद्गलपरावर्तन आदि पंच परिवर्तनरूप, तथा सर्वोद्धा आदिक कालका प्रमाण अनन्त है । भाष्यकारने संख्येय असंख्येय और अनंत इस तरह तीन भेदोंका उल्लेख किया है, परन्तु उनमेंसे यहाँपर पहले दो भेदोंका खुलासा किया है, अनन्तका खुलासा नहीं किया है, सो ग्रन्थान्तरोंसे समझ लेना चाहिये । सामान्यसे अनन्त उसको कहते हैं, कि जिस राशिका कभी अन्त न आवे । इसके मूलमें दो भेद हैं-सक्षय अनन्त और अक्षय अनन्त । अक्षय अनन्तका स्वरूप इस प्रकार है-" सत्यपि व्ययसद्भावे, नवीनवृद्धेरभाववत्त्वं चेत् । यस्य क्षयो न नियतः । सोऽनन्तो जिनमते भणितः ॥” अनन्तके ३ भेद इस प्रकार भी बताये हैं-युक्तानन्त परीतानन्त अनन्तानन्त । इनमें भी प्रत्येकके उत्कृष्ट मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन तीन प्रकार हैं। इनका प्रमाण गोम्मटसार कर्मकाण्डकी भूमिकामें देखना चाहिये।
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