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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम [ चतुर्थोऽध्यायः 1 सुषमसुषमासे लेकर दुष्षम दुष्पमा तकका काल दश कोड़ाकोड़ी सागरका है । इस दश कोडाकोड़ी सागरेक अनुलोम- सुषमसुषमासे लेकर दुपमदुषमा तक के कालको अवसर्पिणी' कहते हैं । दश कोड़ाकोड़ी सागरके ही प्रतिलोम - दुषमदुषमासे लेकर सुपमसुषमा पर्यन्त कालको उत्सर्पिणी' कहते हैं । जिस प्रकार दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद दिन हुआ करता है, तथा उनकी इसी तरह की प्रवृत्ति अनादि कालसे चली आ रही है, उसी प्रकार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालकी फिरन भी अनादि काल से चली आ रही है । अवसर्पिणीके बाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणीके बाद अवसर्पिणी काल प्रवृत्त हुआ करता है, यह प्रवृत्ति अनादि कालसे है । किन्तु यह भरत आर ऐरावत क्षेत्रमें ही होती है, अन्य क्षेत्रोंमें नहीं । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दोनों ही कालोंमें क्रमसे शरीर आयु और शुभ परिणामोंकी अनन्तगुणी हानि और वृद्धि हुआ करती है, तथा अशुभ परिणामों की अनन्तगुणी वृद्धि और हानि हुआ करती है । अर्थात् अवसर्पिणी कालमें शरीर आयु और शुभ परिणामोंकी क्रमसे अनन्तगुणी हानि होती जाती है, और उत्सर्पिणी कालमें इन विषयों की क्रमसे अनन्तगुणी वृद्धि होती जाती है । इसी प्रकार अवसर्पिणीमें अशुभ परिणामों की अनन्तगुणी वृद्धि होती जाती है, और उत्सर्पिणीमें उनकी क्रमसे अनन्तगुणी हानि होती जाती है । भरत और ऐरावत के सिवाय दूसरे क्षेत्रों में कालकी प्रवृत्ति अवस्थित है, और वहाँके गुण भी अवस्थित हैं । यथा - कुरुक्षेत्र में - देवकुरु और उत्तरकुरुमें सदा सुषमसुषमा काल ही अवस्थित रहता है" । कल्पवृक्षादिके परिणाम जो नियत हैं, वे ही वहाँ हमेशा बने २१४ १ - जिसमें आयु काय और शुभ परिणाम घटते जाँय उसको अवसर्पिणी कहते हैं । अवसर्पिणीकं वाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी बाद अवसर्पिणी हुआ करती है। असंख्यात अवसर्पिणियोंके अन तर एक हुंडावसर्पिणी हुआ करती है । इसमें द्रव्य मिथ्यात्वकी प्रवृत्ति और अनेक विलक्षण कार्य हुआ करते हैं। वर्तमान में हुंडावसर्पिणी काल चल रहा है । २- जिसमें आयु काय और शुभ परिणाम बढ़ते जाँय । ३- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनोंके समूहको एक कल्पकाल कहते हैं | अतएव उसका प्रमाण बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । ४- अर्थात् अवसर्पिणीमें शरीरादिककी अनन्तगुणी हानि और उत्सर्पिणीमें अनन्तगुणी वृद्धि हुआ करती है | शुभ परिणामोंसे प्रयोजन आचार विचार शिक्षा दीक्षा बुद्धि और मनकी गति रीति नीति आदि सभी धार्मिक भावोंसे है, सुषमसुषमामें मनुष्योंका शरीर ३ कोशका, आयु ३ पल्यकी होती है । आगे घटती घटती जाती है, दुष्षमा ( वर्तमान काल ) में शरीरका प्रमाण अनियत और आयुका प्रमाण १०० वर्ष परन्तु अनियत है । अति दुष्षमा में शरीर प्रमाण अनियत परन्तु अन्तमें एक हाथका है । आयु सोलह वर्षकी मानी है । प्रतिलोम में इसकी उल्टी गति समझनी चाहिये । ५ - यह उत्तम भोगभूमि है । यहाँपर उत्तम पात्रको दान देनेके द्वारा संचित पुण्य के प्रभावसे युगल उत्पन्न हुआ करते हैं | उत्तम शरीर संहनन आयु कायरूपको पानेवाले दश प्रकार के कल्पवृक्षोंके फलोंको भोगते हैं । स्त्री पुरुष साथ उत्पन्न होते और साथ ही मृत्युको प्राप्त होते हैं। पुरुष जंभाई लेकर और स्त्री छींक लेकर मरते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों ही मरकर नियमसे स्वर्गको जाते हैं। क्योंकि उनके परिणाम अत्यंत मन्द कषायरूप हुआ करते हैं । इनके शरीरकी कान्ति तप्त सुवर्णके समान हुआ करती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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