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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ..11 सूत्र १५ । ] भाष्यतत्वार्थाधिगमसत्रमा २१३ चौरासी लाख वर्षका एक पूर्वाङ्ग, चौरासी लाख पूर्वाङ्गका एक पूर्व हुआ करता है। पूर्वसे आगे क्रमसे अयुत कमल नलिन कुमुद तुटि अडड अवव हाहा और हूह भेद माने हैं। इनका प्रमाण भी उत्तरोत्तर चौरासी लाख चौरासी लाख गुणा है। अर्थात् चौरासी लाख पर्वका एक अयत और चौरासी लाख अयुतका एक कमल, चौरासी लाख कमलका एक नलिन, चौरासी लाख नलिनका एक कुमुद, चौरासी लाख कुमुदका एक तुटि, चौरासी लाख तटिका एक अडड, चौरासी लाख अडडका एक अवव, चौरासी लाख अववका एक हाहा, और चौरासी लाख हाहाका एक हह होता है। यहाँतक संख्यात कालके भेद हैं । क्योंकि ये गणित-शास्त्रके विषय हो सकते हैं और हैं । अतएव इसके ऊपर जो कालके भेद गिनाये हैं, उनको उपमा नियत कहते हैं । इस उपमा नियत-कालका प्रमाण इस प्रकार है: एक योजन लम्बा और एक ही योजन चौड़ा तथा एक ही योजन ऊँचा गहरा-एक गोल गड्डा बनाना चाहिये । एक दिन या रात्रिसे लेकर सात दिन तकके उत्पन्न मेढेके बच्चके बालोंसे उस गडेको गाढरूपसे-खूब अच्छी तरह दबाकर पूर्णतया भरना चाहिये । पुनः सौ सौ वर्षमें उन बालोंमेंसे एक एक बालको निकालना चाहिये । इसी क्रमसे निकालते निकालते जब वह गड्ढा बिलकुल खाली होजाय, उतनेमें जितना काल लगे, उसको एक पल्य कहते हैं। इसको दश कोडाकोड़ीसे गुणा करनेपर एक सागर होता है। अर्थात् दश कोडाकोड़ी पल्यका एक सागर होता है। चार कोडाकोड़ी सागरका एक सुषमसुषमा, तीन कोडाकोड़ी सागरका सुषमा, दो कोडाकोड़ी सागरका सुषमादुष्षमा, ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागरका दुषमसुषमा, इक्कीस हजार वर्षका दुप्पम, और इक्कीस हजार वर्षका ही दुष्पमदुष्षमा काल माना है । १-भाष्यकारने जो स्थान गिनाये हैं, वे अत्यल्प हैं । आगममें जो क्रम बताया है, वह इस प्रकार हैतुट्यङ्ग तुटिका अडडाङ्ग अडडाअववाङ्ग अववा हाहाङ्ग हाहा हूङ्ग हुहुका उत्पलाङ्ग उत्सल पद्माङ्ग पद्म नलिनाग नलिन अर्थनियूराङ्ग अर्थनियूर चूलिकाङ्ग चूलिका शीर्षप्रहेलिकाङ्ग शीर्षप्रहेलिका । ये सब चौरासी लाख चौरासी लाख गुणे है । सूर्यप्रज्ञप्तिमें पूर्वके ऊपर लताङ्गसे लेकर शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त गणित-शास्त्रका विषय बताया है। २-उपमामान असंख्यातरूप है । वह करके नहीं बताया जा सकता, अतएव किसी न किसी चीजकी उपमा देकर उसके छोटे बड़ेपनका बोध कराया जाता है । जैसे कि पल्य सागर आदि । अन्न भरनेकी खासको पल्य और समुद्रको सागर . कहते हैं। ३-ऐसा प्रयोग किसाने न किया है और न हो सकता है, केवल बुद्धिके द्वारा कल्पना करके समझनेके लिये यह उपाय केवल कल्पनारूप बताया है। ४-दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार उन बालोंके ऐसे टुकड़े करना 'जिनका कि फिर कैंचोसे दूसरा टुकड़ा न होसके, ऐसे बाल-खण्डोंसे उस गड्डेको भरना चाहिये। -पल्य ३ प्रकारका माना है-उद्धारपल्य अद्धापल्य और क्षेत्रपल्य । दिगम्बर सम्प्रदायमें इस प्रकार ३ भेद माने हैं-व्यवहारपल्य उद्धारपत्य और अद्धापल्य। इनके उत्तरभद अनेक हैं, उनका स्वरूप और उनके कालके अल्प बहुत्वको टीका- ग्रन्थोंमें देखना चाहिये । सामान्यतया-उद्धारपल्यका प्रयोजन द्वीप सागरोंकी गणना आदिका है। अद्धापल्यका प्रयोजन उत्सर्पिणी आदि काल -विभाग कर्मस्थिति पृथिवी कायादिककी काय और भवकी स्थिति आदिका परिज्ञान कराना हैं । क्षेत्रपल्यका प्रयोजन पृथिवी कायादिक जीव-राशिका परिमाण बताना है। प्रत्येक पल्यके बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो दो भेद हैं । यहाँपर भाष्यकारने बादर अद्धापल्यका स्वरूप बताया है, जोकि संख्यात कोटि वर्षरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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