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________________ सूत्र १४ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सूर्यमण्डलका विष्कम्भ अड़तालीस योजन और एक योजनके साठ भागोंमेंसे एक भागप्रमाण ( ४८१० ) है । चन्द्रमण्डलका विष्कम्भ छप्पन योजन है । ग्रहोंका विष्कम्भ अर्ध योजन, और नक्षत्रोंका विष्कम्भ दो कोश, तथा ताराओं से सबसे बड़े ताराका विष्कम्भ ( उत्कृष्ट विष्कम्भका प्रमाण ) आधा कोश और सबसे छोटे ताराका विष्कम्भ ( जघन्य प्रमाण ) पाँचसौ धनुष है। इन मण्डलोंके विष्कम्भका जो प्रमाण बताया है, उससे आधा बाहल्य-मोटाई या ऊँचाईका प्रमाण समझना चाहिये । ___ इस प्रकार सूर्य आदि सम्पर्ण ज्योतिष्क देवोंका जो प्रमाण यहाँपर बताया है, वह मनुष्यलोककी अपेक्षासे है। मनुष्यलोकसे बाहर सूर्य आदिके मण्डलोंका विष्कम्भ और बाहल्य मनुष्यक्षेत्रवर्ती सूर्य मण्डलादिके विष्कम्भ और बाहल्यसे आधा समझना चाहिये । अर्थात् मनुष्यक्षेत्रके बाहर जितने सूर्य हैं, उनमेंसे प्रत्येक सूर्यमण्डलका विष्कम्भ चौबीस योजन और एक योजनके साठ भागमेंसे एक भाग प्रमाण ( २४१ ) है । इससे आधा प्रमाण बाहल्यका समझना चाहिये । इसी तरह चन्द्रमण्डल आदिका जो प्रमाण मनुष्यलोकमें बताया है, उससे आधा मनुष्यक्षेत्रके बाहरके चन्द्रमण्डलादिकका है, ऐसा समझना । कुछ लोगोंका कहना है, कि सूर्यमण्डलादि जो भ्रमण करते हैं, उसका कारण ईश्वरीय इच्छा है । ईश्वर ही जगत्का कर्ता हत्तो विधाता है, अतएव उसकी सृष्टिमें उसकी इच्छाके विना कुछ भी नहीं हो सकता, और न इस प्रकारकी नियत गति उसकी इच्छाके विना बन ही सकती है । परन्तु यह बात नहीं है, सर्वज्ञ वीतराग कर्ममलसे सर्वथा रहित अशरीर परमात्मा सृष्टिका कर्ता हर्त्ता विधाता नहीं बन सकता । उसमें इस प्रकारके गुणोंका आरोपण करना युक्ति और वस्तुस्थितिसे सर्वथा विरुद्ध है । सृष्टिका सम्पूर्ण कार्य वस्तु स्वभावसे ही चल रहा है । तदनुसार ही सूर्यमण्डलादिका भ्रमण भी समझना चाहिये । ज्योतिष्क विमानोंकी आभीक्ष्ण्य-नित्यगति लोकानुभाव-वस्तु स्वभावके अनुसार ही प्रसक्त-सम्बद्ध-नियत है । तदनुसार ही उनका गमन हुआ करता है। फिर भी ऋद्धिविशेषको प्रकट करनेके लिये, जिनके आभियोग्य नामकर्मका उदय आ रहा है, और इस उदयके कारण ही जो गति-गमन करनेमें ही रति-प्रीति रखनेवाले हैं ऐसे वाहन जातिके देव उन सूर्यमण्डलादिकोंको खींचा करते हैं । आभियोग्य नामकर्मके उदयसे जिनको सदा गमन करनेकी ही क्रिया पसंद है, ऐसे देव लोकस्थितिके अनुसार स्वयं ही घूमते हुए सूर्यमण्डलादिके नीचे सिंहादिके नाना आकार धारण करके गमन किया करते हैं, और उन विमानोंको खींचा करते हैं । इस कथनसे यह बात प्रकट कर दी है, कि उन वाहन-देवोंको १-मूलमें गव्यूति शब्द है । यद्यपि कहीं कहीं पर गव्यूति शब्दका अर्थ एक कोश भी किया है, परन्तु वह व्यापक अर्थ नहीं है, सामान्यसे गव्यूति शब्दका दो कोश ही अर्थ होता है। अमरकोशमें भी “गन्यूतिः स्त्री क्रोशयुगं" ऐसा ही लिखा है, अतएव यहाँपर दो कोश ही अर्थ किया है। यही अर्थ शास्त्रसे अविरुद्ध है। .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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