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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ चतुर्थोऽध्यायः
सूत्र-मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १४ ॥ भाष्यम्-मानुषोत्तरपर्यन्तो मनुष्यलोक इत्युक्तम् । तस्मिन् ज्योतिष्का मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो भवन्ति । मेरोः प्रदक्षिणा नित्या गतिरेषामिति मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयः। एकादशस्वेकविशेषु योजनशतेषु मेरोश्चतुर्दिशं प्रदक्षिणं चरन्ति । तत्र द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपे, लवणजले चत्वारो, धातकीखण्डे द्वादश, कालोदे द्वाचत्वारिंशत्, पुष्करार्धे द्विसप्ततिरित्येवं मनुष्यलोके द्वात्रिंशत्सूर्यशतं भवति । चन्द्रमसामप्येष एव विधिः । अष्टाविंशतिनक्षत्राणि, अष्टाशीतिर्ग्रहाः, षट्षष्ठिःसहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्ततीनि तारा कोटाकोटीनामेकैकस्य चन्द्रमसः परिग्रहः । सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहा नक्षत्राणि च तिर्यग्लोके, शेषास्तूलोके ज्योतिष्का भवन्ति । अष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्ठिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः, चन्द्रमसः षट्पञ्चाशत, ग्रहाणामधयोजनम्, गव्यूतं नक्षत्राणाम, सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्धकोशो, जघन्यायाः पञ्चधनुःशतानि । विष्कम्भार्धबाहुल्याश्च भवन्ति सर्वे सूर्यादयः, नृलोक इति वर्तते । बहिस्तु विष्कम्भबाहल्याभ्यामतोऽध भवन्ति ॥ एतानि च ज्योतिष्कविमानानि लोकस्थित्या प्रसक्तावस्थितगतीन्यपि ऋद्धिविशेषार्थमाभियोग्यनामकर्मोदयाच नित्यंगतिरतयो देवा वहन्ति । तद्यथा-पुरस्तात्केसरिणो, दक्षिणतः कुञ्जराः, अपरतो वृषभाः, उत्तरतो जविनोऽश्वा इति ॥
अर्थ-मनुष्यलोकका प्रमाण पहले बता चुके हैं, कि मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त मनुष्यलोक है। अर्थात् जम्बूद्वीप धातकीखंड और पुष्करद्वीपका अर्ध भाग तथा इनके मध्यवर्ती लवणसमुद्र और कालोदसमुद्र इस समस्त क्षेत्रको मनुष्यलोक कहते हैं। इसमें जितने ज्योतिष्कदेवोंके विमान हैं, वे सभी मेरुकी प्रदक्षिणा देनेवाले और नित्य गमन करनेवाले हैं। इनकी मेरुकी प्रदक्षिणारूप गति नित्य है, इसी लिये इनको मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतिवाला कहा है। ग्यारह सौ इक्कीस योजन ( ११२१ ) मेरुसे हटकर चारों दिशाओंमें ये प्रदक्षिणा दिया करते हैं। अर्थात् मेरुसे ११२१ योजन दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा देते हुए भ्रमण किया करते हैं।
___ ज्योतिष्क देवोंके पाँच भेद जो बताये हैं, उनमें से सूर्य जम्बूद्वीपमें दो, लवणसमुद्रमें चार, धातकीखण्डमें बारह, कालोदधिसमुद्रमें ब्यालीस, और पुष्करद्वीपके मनुष्यक्षेत्र सम्बन्धी अर्ध भागमें बहत्तर हैं। इस प्रकार मनुष्यलोकमें कुल मिलाकर एक सौ बत्तीस सूर्य होते हैं। चन्द्रमाओंका विधान भी सूर्यविधिके समान ही समझना चाहिये । प्रत्येक चन्द्रमाका परिग्रह इस प्रकार है-अट्ठाईस नक्षत्र, अठासी ग्रह और छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर (६६९७५) कोडाकोडी तारा ।
पाँच प्रकारके ज्योतिष्कोंमेंसे सर्य चन्द्रमा ग्रह और नक्षत्र ये चार तो तिर्यगलोकमें हैं, और शेष ज्योतिष्क-प्रकीर्णक तारा ऊर्ध्वलोकमें हैं।
१--अन्य प्रन्योंमें पाँचो ही प्रकारके ज्योतिष्क तिर्यग्लोकमें ही माने हैं । अतएव इसकी टीकामे सिद्धसेन गणीने लिखा है कि " आचार्य एवेदमवगच्छति, नत्वार्षमेवमवस्थितं, सर्वज्योतिष्काणां तिर्यग्लोकव्यवस्थानात् ।" परन्तु किसी किसीने इसका ऐसा भी अभिप्राय लिखा है, कि भाष्यकारका आशय भी उनके बहुश्रुत होनेसे अविरुद्ध ही है । अतएव यहाँपर ऊर्ध्व लोकसे ऊर्ध्व दिशा अथवा सबसे ऊपरका भाग ऐसा अर्थ समझना चाहिये । क्योंकि ताराओंकी गति अनियत है, और वे चन्द्रमासे ऊपर भी गमन करते हैं, तथा नौ सौ योजनका तिर्यग्लोक भी माना नहीं है।
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