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________________ २०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ चतुर्थोऽध्यायः गिनाया है, उसकी लेशमात्र सूचना आर्ष आगममें मिलती है, परन्तु इस तरहका पाठ नहीं मिलता। इनके आवासस्थान या जन्मस्थानोंका प्रकार विस्तार प्रमाण शरीरकी अवगाहना देवियोंकी संख्या अवधिका विषयक्षेत्र आदिका स्वरूप ग्रन्थान्तरोंसे जानना चाहिये। ___ भाष्यम्--तृतीयो देवनिकायः।-- अर्थ-ऊपर पहले-भवनवासी और दूसरे-व्यन्तर देवनिकायका वर्णन किया । उसके अनन्तर क्रमानुसार तीसरे देवनिकायका वर्णन अवसरप्राप्त है । अतएव उसका वर्णन करनेके लिये सूत्र कहते हैं:सूत्र-ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णतारकाश्च ॥१३॥ ___ भाष्यम्--ज्योतिष्काः पंचविधा भवन्ति । तद्यथा--सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहा नक्षत्राणि प्रकीर्णकतारका इति पंचविधा ज्योतिष्का इति । असमासकरणमार्षाच्च सूर्याचन्द्रमसोः कमभेदः कृतःयथा गम्येतैतदेवैषामूर्ध्वनिवेश आनुपूर्व्यमिति । तद्यथा-सर्वाधस्तात्सूर्यास्त. तश्चन्द्रमसस्ततो ग्रहास्ततो नक्षत्राणि ततोऽपि प्रकीर्णताराः। ताराग्रहास्त्वनियतचारित्वासूर्यचन्द्रमसामूर्ध्वमधश्च चरन्ति । सूर्येभ्यो दशयोजनावलम्बिनो भवन्तीति । समामि भागादष्टसु योजनशतेषु सूर्यास्ततो योजनानामशीत्यां चन्द्रमसस्ततो विंशत्यां तारा इति । द्योतयन्त इति ज्योतींषि विमानानि तेषुभवा ज्योतिष्का ज्योतिषो वा देवा ज्योतिरेव वा ज्योतिष्काः। मुकुटेषु शिरोमुकुटोपगूहितैः प्रभामण्डलकल्पैरुज्ज्वलै सूर्यचन्द्रतारामण्डलैर्यथास्वं चिन्हैविराजमाना द्युतिमन्तो ज्योतष्का भवन्तीति ।। अर्थ-तीसरा देवनिकाय ज्योतिष्क है । वह पाँच प्रकारका है । यथा-सूर्य चन्द्रमा ग्रह नक्षत्र और प्रकीर्णक तारा । इस तरह ज्योतिष्क देव पाँच प्रकारके हैं । इस सूत्रमें सूर्य और चन्द्रमस् शब्दका समास नहीं किया गया है । यदि वह करके “ सूर्याचन्द्रमसो" ऐसा पाठ कर दिया जाता, तो लाघव होता था । सो न करके असमस्त पद ही रक्खा है । इस लिये और आर्ष आगमके प्रमाणसे सूर्य और चन्द्रमाके पाठका क्रम भी भिन्न ही कर दिया है, इसलिये आचार्यका अभिप्राय ज्ञापनसिद्ध विशेष अर्थक बोध करानेका है । वह यह कि जिससे ज्योतिष्क विमानोंका यह आनुपूर्व और ऊर्ध्वनिवेश अच्छी तरह और ठीक ठीक समझमें आ जाय । वह इस प्रकार है कि-सबके नीचे सूर्य हैं, उसके ऊपर चन्द्रमा, उसके ऊपर ग्रह और उसके ऊपर नक्षत्र और उसके भी ऊपर प्रकीर्णक ताराओंका निवेश है । १-" भेदाश्चैषां किन्नरादीनां स्वस्थाने भाष्यकृता बहवो निदर्शितास्ते चार्षे सूचिता लेशतो न प्रतिपदमधीताः ।" (सिद्धसेनगणि टीका ) २-ज्योतिष्कशब्दकी निरुक्ति इस प्रकार है-ज्योतींषि विमानानि तेषुभवा ज्योतिष्काः द्वयष्टगादिसूत्रात् टक्, अथवा ज्योतिषो देवास्तैर्दीव्यन्तीति ज्योतिष्काः वपुःसम्बन्धिना वा ज्योतिषा ज्वलन्तीति ज्योतिष्काः यद्वा ज्योतिरवे ज्योतिष्काः भास्वरशरीरत्वात् समस्त दिङ्मण्डलद्योतनत्वाच्च स्वार्थे कन् । यहाँपर भाष्यकारने पहले ज्योतिष्कोंके प्रकार फिर उसका अर्थ और स्वरूप भी आगे बताया है। ३-दिगम्बर सम्प्रदायमें ऐसा ही पाठ है । ४–आर्ष आगममें सर्वत्र चन्द्रमाका पाठ पहले और सूर्यका पाठ पीछे मिलता है। परन्तु यहाँपर सूत्रमें सूर्य शब्दका पाठ पहले किया है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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