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________________ सूत्र १२ ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०३ बाहुओंमें अधिक हुआ करती है । इनका मुखभाग अधिक भास्वर प्रकाशशील हुआ करता है, और ये नाना प्रकारके आभरणोंसे भषित रहा करते हैं। चित्र विचित्र प्रकारकी मालाओंसे सुसज्जित एवं अनेक तरहके अनुलेप इत्र आदिसे अनुलिप्त रहा करते हैं । इनका चिन्ह चम्पक वृक्षकी ध्वजा है। तीसरी जातिके व्यन्तर महोरग श्यामवर्ण किन्तु अवदात शुद्ध स्वच्छ और उज्ज्वल हुआ करते हैं, ये महान् वेगको और सौम्य स्वभावको धारण करनेवाले हुआ करते हैं। इनका स्वरूप देखनेमें सौम्य हुआ करता है । तथा इनका शरीर महान् और स्कन्ध तथा ग्रीवाका भाग विशाल एवं स्थूल हुआ करता है । ये विविध प्रकारके विलेपनोंसे युक्त और विचित्र आभरणोंसे भूषित रहा करते हैं । इनका चिन्ह नाग वृक्षकी ध्वजा है । चौथे गान्धर्व जातिके व्यन्तर शद्ध स्वच्छ लाल वर्णके और गम्भीर-धन शरीरको धारण करनेवाले हुआ करते हैं। उनका स्वरूप देखनेमें प्रिय होता है। और सुन्दररूप तथा सुन्दरमुखके आकार और मनोज्ञ स्वरके धारक हआ करते हैं । शिरपर मुकुटको रखनेवाले और गलेमें हारसे विभूषित रहा करते हैं । इनका चिन्ह तुम्बुरु वृक्षकी ध्वजा है । पाँचवें यक्ष जातिके व्यन्तर निर्मल श्यामवर्णके किन्तु गम्भीर और तुन्दिल हुआ करते हैं । मनोज्ञ और देखनेमें प्रिय तथा मान और उन्मानके प्रमाणसे युक्त होते हैं। हाथ पैरोंके तलभागमें तथा नख तालु जिव्हा और ओष्ठ प्रदेशमें लालवर्णके हुआ करते हैं। प्रकाशमान मुकुटोंको धारण करनेवाले और नाना प्रकारके रत्न अथवा रत्नजटित भूषणोंसे भूषित रहा करते हैं । इनका चिन्ह वट वृक्षकी ध्वजा है । छट्टे राक्षस जातिके व्यन्तर शुद्ध निर्मल वर्णके धारक भीम और देखनेमें भयंकर हुआ करते हैं । शिरोभागमें अत्यंत कराल तथा लालवर्णके लम्बे ओष्ठोसे युक्त हुआ करते हैं । तपाये हुए सुवर्णके आभूषणोंसे अलंकृत और अनेक तरहके विलेपनोंसे युक्त होते हैं। और इनका चिन्ह खटाङ्गकी ध्वजा है । सातवें भूत जातिके व्यन्तर श्यामवर्ण किन्तु सुन्दर रूपको रखनेवाले सौम्य स्वभावके अतिस्थूल अनेक प्रकारके विलेपनोंसे युक्त कालरूप हुआ करते हैं। इनका चिन्ह सुलसध्वजा है। आठवीं जातिके व्यन्तर पिशाच हैं । ये सुन्दर रूपके धारक देखनेमें सौम्य और हाथ तथा ग्रीवामें मणियों और रत्ननटित भूषणोंसे अलंकृत रहा करते हैं । इनका चिन्ह कदम्ब वृक्षकी ध्वना है। इस तरहसे आठ प्रकारके व्यन्तरोंका स्वभाव-रुचि विक्रिया शरीरका विविधकरण-वर्ण आकार प्रकार आदि और रूप तथा चिन्होंको समझना चाहिये । भावार्थ-दूसरा देवनिकाय व्यन्तर है । व्यन्तर शब्दका अर्थ और उनके जन्म तथा निवास करनेके स्थानका ऊपर वर्णन कर चुके हैं। यहाँपर उनके भेद और स्वभाव आदिको बताया है । आठ प्रकारके व्यन्तरोंके जो उत्तरभेद हैं, उनका स्वभावादि भी अपने अपने मूलभेदके अनुसार ही समझ लेना चाहिये । यहाँपर भाष्यकारने जो बहुतसे उत्तरमेदोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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