________________
२००
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चतुर्थोऽध्यायः करते हैं । इनका चिन्ह गरुड़ है । अग्निकुमार मान और उन्मान–चौड़ाई और ऊँचाईका जितना प्रमाण होना चाहिये, उससे युक्त दैदीप्यमान और शुद्ध वर्णके धारण करनेवाले हुआ करते हैं । इनका चिन्ह घट है । स्थिर स्थूल और गोल शरीरको रखनेवाले तथा निमग्न उदरसे युक्त एवं शुद्ध वर्णके धारक वातकुमार हुआ करते हैं । इनका चिन्ह अश्व है। स्तनितकुमार चिक्कण और स्निग्ध गम्भीर प्रतिध्वनि तथा महानाद करनेवाले और कृष्ण वर्ण हुआ करते हैं । इनका चिन्ह वर्धमान है । उदधिकुमार नवा और कटि भागमें अधिक सुन्दर और कृष्णश्याम वर्णके धारक हुआ करते हैं। इनका चिन्ह मकर है । द्वीपकुमार वक्षःस्थल स्कन्ध-कंधा बाहुओंका अग्र भाग एवं हस्तस्थलमें विशेष सुन्दर हुआ करते हैं, शुद्ध श्याम और उज्ज्वल वर्णको धारण करनेवाले हुआ करते हैं। इनका चिन्ह सिंह है। दिक्कुमार जङघाओंके अग्रभाग और पैरोंमें अधिक सुन्दर होते और श्यामवर्णको धारण करनेवाले हुआ करते हैं । इनका चिन्ह हस्ती है । ___ इस प्रकार यह भवनवासियोंकी भिन्न भिन्न विक्रियाओंका स्वरूप बताया है। इसके सिवाय ये सभी देव नाना प्रकारके वस्त्र आभरण प्रहरण और आवरणोंसे युक्त रहा करते हैं।
भावार्थ-लोकमें यह बात प्रसिद्ध है, कि असुर, देवोंके विरोधी और विप हुआ करते हैं । सो यह बात नहीं है । ये भी देवयोनि ही हैं। इनको पहले देवनिकायमें माना है, और ये अति सुन्दर रूपको धारण करनेवाले हुआ करते हैं। किन्तु ये कर्मजनित जाति स्वभावके कारण कुमारोंकीसी चेष्टाको पसन्द करते हैं, अतएव कुमार कहे जाते हैं । इनके आवास और भवनोंके विषयमें ऊपर लिखा जा चुका है। किस किस जातिके देवोंके भवनोंकी संख्या कितनी कितनी है, सो टीका-ग्रन्थोंसे देखना चाहिये ।
_क्रमानुसार दसरे देवनिकायके जो आठ भेद बताये हैं, वे कौनसे हैं, उनको बतानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र-व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्ष
सभूतपिशाचाः ॥ १२ ॥ भाष्यम्-अष्टविधो द्वितीयो देवनिकायाः। एतानि चास्य विधानानि भवन्ति । अधस्तिर्यगूज़ च त्रिष्वपि लोकेषु भवननगरेष्वावासेषु च प्रतिवसन्ति । यस्माच्चाधस्तिर्यगूज़ च त्रीनपि लोकान स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात्पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचारा मनुष्यानपि केचिद्धृत्यवदुपचरन्ति विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्त्यतो ब्यन्तरा इत्युच्यन्ते ॥
अर्थ-दूसरा देवनिकाय व्यन्तर है । वह आठ प्रकारका है। वे आठ भेद इस प्रकार हैंकिन्नर १ किम्पुरुष २ महोरग ३ गन्धर्व ४ यक्ष ५ राक्षस ६ भूत ७ और पिशाच ८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .